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________________ २०० ज्ञानसार जन्मादिकोऽपि नियतः परिणामो हि कर्मणाम् । न च कर्म कृतो भेदः स्यादात्मन्यविकारिणि ॥१५॥ आरोग्य केवलं कर्म-कृतां विकृतिमात्मनि । भ्रमन्ति भ्रष्टविज्ञाना भीमे संसारसागरे ॥१६॥ उपाधिभेदजं भेदं वेत्यज्ञः स्फटिके यथा । तथा कर्मकृतं भेद-मात्मन्येवाभिमन्यते ॥१७॥ -अध्यात्मसारे-आत्मनश्चयाधिकारे "जन्म जरा मृत्यु आदि सब कर्मों का परिणाम है । वे कर्म जन्य भाव अविकारी आत्मा के नहीं हैं, फिर भी अविकारी आत्मा में कर्मजन्य विकृति को आरोपित करनेवाले ज्ञानभ्रष्ट जीव भवन में भटकते रहते हैं। इस तरह कर्मजन्य विकृति को अविकारी आत्मा में आरोपित करनेवाले लोग स्फटिक रत्न को लाल-पीला समझनेवालों की तरह अज्ञानी हैं । वे इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं कि जिस स्फटिक को वे लाल-पीला समझते हैं वह तो उसके पीछे रहे लाल-पीले वस्त्र के कारण दिखायी पड़ता है। उसी तरह आत्मा में जो जन्मादि विकृति के दर्शन होते हैं, वह कर्मजन्य हैं, कर्मकृत है, ना कि आत्मा के है, लेकिन अज्ञानदशा इस तथ्य को समझने नहीं देती, बल्कि वह तो मिथ्या आरोप करके ही रहती है। आत्मा और कर्म भले ही एक आकाशक्षेत्र में रहते हों, लेकिन कर्म के गुण आत्मा में संक्रमण नहीं कर पाते । आत्मा अपने भव्य स्वभाव के कारण सदैव शुद्ध-विशुद्ध है । जिस तरह धर्मास्तिकाय है । अर्थात् धर्मास्तिकाय भी आकाशक्षेत्र में ही है, फिर भी कर्मजन्य विकृति धर्मास्तिकाय में संक्रमण नहीं कर पाती ! धर्मास्तिकाय अपने शुद्ध स्वरूप में निर्बाध रहता है, उसी तरह आत्मा भी शुद्ध-विशुद्ध स्वरूप में रही हुई है। कर्मजन्य विकृतिओं को आत्मा में आरोपित कर ही जीव राग-द्वेष में सड़-गल रहा है, नारकीय यंत्रणाएँ सह रहा है । दु:ख में वह चीखता चिल्लाता है, विलाप करता है । सुख में आनंदित हो, नृत्य कर उठता है । तदुपरांत भी अपने को ज्ञानी और विवेकशील होने का मिथ्याडम्बर रचाता है। उसी तरह अन्य
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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