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________________ विवेक १९७ गुणों के बारे में द्वेष भावना नहीं रहती और उससे जीवन उज्ज्वल बनाने की तमन्ना पैदा होती है ! फलस्वरूप, अणुव्रत एवं महाव्रतों को अंगीकार करने की तथा आसेवन करने की वृत्ति और प्रवृत्ति का आविर्भाव होता है। यह वृत्ति और प्रवृत्ति ज्यों-ज्यों बढती जाती है त्यों-त्यों मोह-वासना नष्ट प्रायः होती जाती है ! फलतः मोहजन्य प्रमाद की वृत्ति-प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं । ऐसा वातावरण निर्माण होने पर 'भेद-ज्ञान' करने की योग्यता प्राप्त होती है । भेद-ज्ञान की कथा प्रिय लगती है । भेद-ज्ञान की प्रेरणा और निरूपण करनेवाले सद्गुरूओं का समागम करने को जी चाहता है ! जो भेद-ज्ञानी नहीं हैं, उनके प्रति अद्वेष रहता है। इस तरह, उसे जब भेद-ज्ञान का अनुभव करने का प्रसंग आता है, तब उसे एक अलभ्य वस्तु की प्राप्ति का अन्तरंग आनन्द होता है। अत: भेद-ज्ञान की वासना से वासित होने की जरूरत है। इससे मन के कई क्लेश और विक्षेप मिट जाएँगे । जीवन की अगणित समस्याएँ क्षणार्ध में हल हो जाएँगी और अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा । शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद् रेखाभिर्मिश्रता यथा । विकारैर्मिश्रता भाति तथाऽत्मन्यविवेकतः ॥१५॥३॥ अर्थ : जिस तरह स्वच्छ आकाश में भी तिमिर-रोग से नील पीतादि रेखाओं के कारण संमिश्रता दृष्टिगोचर होती हैं, ठीक उसी तरह आत्मा में अविवेक से विकारों के कारण संमिश्रता प्रतीत होती है । (आभासित होती है)। विवेचन : आकाश स्वच्छ और सुंदर है । लेकिन उसको देखनेवाले की आँखे तिमिस्-रोग से ग्रसित होने के कारण उसे आकाश में लाल-पीली विविध प्रकार की रेखाएँ दिखायी पड़ती हैं और वह बोल उठता है : "आकाश कैसा चित्र-विचित्र लगता है।" _ 'निश्चयनय' से आत्मा निर्विकार, निर्मोह, वीतराग और चैतन्य स्वरूप है ! लेकिन उसे देखनेवाले की दृष्टि में क्रोधादि विकारों का रोग है। अतः क्रोधादि विकारों से युक्त अविवेकी दृष्टि के कारण उसे काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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