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विवेक
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गुणों के बारे में द्वेष भावना नहीं रहती और उससे जीवन उज्ज्वल बनाने की तमन्ना पैदा होती है ! फलस्वरूप, अणुव्रत एवं महाव्रतों को अंगीकार करने की तथा आसेवन करने की वृत्ति और प्रवृत्ति का आविर्भाव होता है। यह वृत्ति और प्रवृत्ति ज्यों-ज्यों बढती जाती है त्यों-त्यों मोह-वासना नष्ट प्रायः होती जाती है ! फलतः मोहजन्य प्रमाद की वृत्ति-प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं ।
ऐसा वातावरण निर्माण होने पर 'भेद-ज्ञान' करने की योग्यता प्राप्त होती है । भेद-ज्ञान की कथा प्रिय लगती है । भेद-ज्ञान की प्रेरणा और निरूपण करनेवाले सद्गुरूओं का समागम करने को जी चाहता है ! जो भेद-ज्ञानी नहीं हैं, उनके प्रति अद्वेष रहता है। इस तरह, उसे जब भेद-ज्ञान का अनुभव करने का प्रसंग आता है, तब उसे एक अलभ्य वस्तु की प्राप्ति का अन्तरंग आनन्द होता है।
अत: भेद-ज्ञान की वासना से वासित होने की जरूरत है। इससे मन के कई क्लेश और विक्षेप मिट जाएँगे । जीवन की अगणित समस्याएँ क्षणार्ध में हल हो जाएँगी और अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा ।
शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद् रेखाभिर्मिश्रता यथा । विकारैर्मिश्रता भाति तथाऽत्मन्यविवेकतः ॥१५॥३॥
अर्थ : जिस तरह स्वच्छ आकाश में भी तिमिर-रोग से नील पीतादि रेखाओं के कारण संमिश्रता दृष्टिगोचर होती हैं, ठीक उसी तरह आत्मा में अविवेक से विकारों के कारण संमिश्रता प्रतीत होती है । (आभासित होती है)।
विवेचन : आकाश स्वच्छ और सुंदर है । लेकिन उसको देखनेवाले की आँखे तिमिस्-रोग से ग्रसित होने के कारण उसे आकाश में लाल-पीली विविध प्रकार की रेखाएँ दिखायी पड़ती हैं और वह बोल उठता है : "आकाश कैसा चित्र-विचित्र लगता है।"
_ 'निश्चयनय' से आत्मा निर्विकार, निर्मोह, वीतराग और चैतन्य स्वरूप है ! लेकिन उसे देखनेवाले की दृष्टि में क्रोधादि विकारों का रोग है। अतः क्रोधादि विकारों से युक्त अविवेकी दृष्टि के कारण उसे काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह,