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ज्ञानसार
मत्सरादि रेखाएँ दिखायी देती हैं और वह चीख पड़ता है, "देखो, जरा दृष्टिपात करो । आत्मा तो क्रोधी, कामी, विकारी और विषय-वासनाग्रस्त लगती है ।'
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इस तरह निश्चयनय हमें अपने मूलस्वरूप का वास्तविक दर्शन कराते हुए अनादिकाल से घर कर बैठी अपनी ही हीन भावना को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित करता है। वाकई में हमने अपने आपको दीन-हीन, अपंग-अपाहिज और पराश्रित - पराजित समझ लिया है । जिस तरह किसी परदेशी - शासन के नृशंस अत्याचार और दमनचक्र से प्रताड़ित, कुचली गयी देहाती जनता में दीनता, हीनता और पराधीनभाव देखने में आते हैं। मानों वे उसी स्थिति में जिंदगी बसर करने में ही पूरा संतोष मानते हैं । लेकिन जब एकाध क्रांतिकारी उनमें पहुँचता है और उन्हें उनकी दारूण अवस्था का सही ज्ञान देता हुआ उत्तेजित स्वर में कहता है : " अरे कैसे तुम लोग हो ? तुम यह न समझो कि यही तुम्हारी वास्तविक जिन्दगी है और तुम्हारे कर्मों में ऐसा जीवन बिताने का लिखा है ! तुम्हें भी एक नागरिक के रूप में पूरे अधिकार हैं । तुम भी आज़ाद बनकर अपनी जिंदगी बसर करने के पूरे हकदार हो और वही तुम्हारा वास्तविक जीवन है। यह परदेशी शासन / राजसत्ता द्वारा तुम पर लादा गया जीवन है । अतः उसे उखाड़ फेंको और खुशहाल जीवन जीने के लिए तत्पर बनो... ।"
कर्मों की जुल्मी सत्ता के तले दबे-कुचले जानेवाले जीव, उनके द्वारा लादे गये स्वरूप को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ बैठे हैं। कर्मानुशासन को अपना अनुशासन मान लिया है। फलतः दीनता, हीनता और पराधीनता की भावना उसके रोम-रोम में बस गयी है। ऐसे में परम क्रांतिकारी परमात्मा जिनेश्वर भगवन्त आह्वान करते हैं !
"जीवात्माओं, यह तुम्हारा वास्तविक जीवन नहीं है । पूर्ण स्वतंत्र, स्वाधीन जीवन जीने का तुम्हारा पूरा अधिकार है। तुम अपने आप में शुद्ध हो, बुद्ध हो, निरंजन - निराकार हो । अक्षय और अव्यय हो, अजरामर हो.... । तुम अपने मूल स्वरुप को समझो । कर्माधीनता के कारण उत्पन्न दीनता, हीनता और न्यूनता के बन्धन तोड़ दो । तुम्हें पदपद पर जो रोग, शोक, जरा और मृत्यु का दर्शन होता है, वह तो कर्म द्वारा तुम्हारी दृष्टि में किये गये विकार - अंजन के कारण होता है । तुम्हारी मृत्यु नहीं, तुम्हारा जन्म नहीं, तुम रोग - ग्रस्त नहीं, नाही कोई