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________________ १९६ ज्ञानसार प्रति पूरी श्रद्धा रखना कि 'मन से भिन्न, वचन से भिन्न और काया से भिन्न ऐसी चैतन्य स्वरूप आत्मा है !' सुलभ नहीं है ! कोई महात्मा ही ऐसे भेदज्ञान के ज्ञाता हो सकते हैं। सुदपरिचिताणुभूता, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एगत्तस्सुवलंभो णवरिण सूलभो विभत्तस्स ॥४॥ -समयसार "काम भोग की कथा किसने नहीं सुनी ? कौन उससे परिचित नहीं है ? किसके अनुभव में वह नहीं आयी ? मतलब, काम-भोग की कथा सबने सुनी है, सब उससे परिचित हैं और सबने उसका अनुभव किया है ! क्योंकि वह सर्वथा सुलभ है। जबकि शरीरादि से भिन्न आत्मा की एकता सुनने में नहीं आयी, उससे कोई परिचित नहीं है और ना ही उसका किसी ने अनुभव किया है, क्योंकि वह दुर्लभ है। असलियत यह है कि काम-भोग की कथा तो असंख्य बार सुनी है, हृदय में संजोकर जीवन में उसका जी भर कर अनुभव किया है। विश्व विजेता सम्राट मोह के राज्य में यही सुलभ और सम्भव था, जबकि दुर्लभ था सिर्फ भेदज्ञान ! विशुद्ध आत्मा के एकत्व का संगीत वहाँ कहीं सुनायी नहीं पड़ रहा था ! भेद-ज्ञान के रहस्यों को जानने के लिए अन्तरात्मदशा प्राप्त करना जरुरी है। उसके लिए पंचेन्द्रिय के विषयों के प्रति विरक्ति, उपेक्षाभाव और तत्संबंधित विषयों का त्याग करते रहना चाहिए । उसके प्रति त्यागवृत्ति का अवलम्बन करते रहना आवश्यक है। जब तक हमारे में विषयों के प्रति अनुराग रहेगा, तब तक हमारा मन बाह्य भावों से ओत-प्रोत रहेगा, वह आत्मा की ओर कभी उन्मुख नहीं होगा । विषयों के त्याग के साथ ही कषायों का उपशम करना भी उतना ही अनिवार्य है। कषायों से संतप्त मन जङ-चेतन का भेद समझने और अनुभव करने में पूर्णतया समर्थ नहीं होता । कषायों का आवेग जिस गति से क्षीण होता जाएगा, उसी गति से उसका (कषाय) ताप कम होता जाता है। कषाय-बन्ध शिथिल होते ही सहज ही तत्त्व की ओर आकर्षण बढ़ता है और श्रद्धा पैदा होती है। जीव-अजीवादि नौ तत्त्वों में निष्ठा और श्रद्धा बढ़ते ही विशेष रूप से जीवात्मा के स्वरूप के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है । परिणाम स्वरूप, जीव के क्षमादि
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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