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________________ विवेक १९५ मान लेता है ! लेकिन यह सत्य भूल जाता है कि प्रस्तुत सभी भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम से निष्पन्न हैं, अतः उसे जीव कैसे कहा जाए ? श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि उक्त आठ प्रकार के कर्म पुद्गलमय हैं ! अवविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा बिति' । -समयसार कर्म और कर्मजनित प्रभावों से आत्मा की भिन्नता जानने के लिए मुनि को हंसवृत्ति का अनुसरण करना चाहिए । जिस तरह हंस दूध पानी के मिश्रण में से सिर्फ दूध को ग्रहण कर पानी को छोड़ देता है, ठीक उसी तरह मुनि को भी कर्म-जीव के मिश्रण में से जीव को ग्रहण कर कर्म को छोड़ देना चाहिए। उसके लिए यह आवश्यक है कि, जीव के असाधारण लक्षणों को वह भलीभांति जान लें, अवगत कर लें और तदनुसार जीव का श्रद्धान करें । इस तरह का विवेक जब मुनि में पनपता है, जागृत होता है, तब वह अपने आप में पूर्णानन्द का अनुभव करता है ! उसके रागादि दोषों का उपशम हो जाता है और चित्त प्रसन्न । प्रफुल्लित हो जाता है ।। ... देहात्माधविवेकोऽयं सर्वदा सुलभो भवे । भवकोट्यापि तद्भेद-विवेकस्त्वति दुर्लभः ॥१५॥शा अर्थ : संसार में प्रायः शरीर और आत्मा वगैरह का अविवेक आसानी से प्राप्त हो सके वैसा है। लेकिन करोडों जन्मों के उपरान्त भी उसका भेदज्ञान अत्यन्त दुर्लभ है। विवेचन : इस संसार में रहे जीव, शरीर और आत्मा के अभेद की वासना से वासित हैं और अभेद-वासना का अविवेक दुर्लभ नहीं, बल्कि सुलभ है। यदि कोई दुर्लभ है तो सिर्फ भेद-परिज्ञान ! लाखों-करोड़ों जन्मों के बावजूद भी भेद-ज्ञानरूपी विवेक सर्वथा दुर्लभ है ! सांसारिक जीव इस शाश्वत् सत्य से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं कि शरीर से भिन्न ऐसा 'आत्मतत्त्व' नामक कोई तत्त्व भी है। वे तो आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व तक को नहीं जानते, तब आत्मा का शुद्ध ज्ञानमय स्वरुप जानने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? हर एक के लिए आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व समझना और उसके
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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