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है कि स्वर्गवास के दिन वहाँ स्तूप में से न्याय की ध्वनि निकलती है और लोगों को सुनाई देती है कभी कभी ।
श्रीमद् यशोविजयजी के साहित्य का परिचय
उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने चार भाषाओं में साहित्यरचना की है
:
१. संस्कृत, २. प्राकृत, ३. गुजराती, ४. राजस्थानी ।
विषय की दृष्टि से देखा जाय तो उन्होंने काव्य, कथा, चरित्र, आचार, तत्त्वज्ञान, न्याय-तर्क, दर्शनशास्त्र, योग, अध्यात्म, वैराग्य आदि अनेक विषयों पर विस्तार से एवं गहराई से लिखा है । उन्होंने जिस प्रकार विद्वानों को चमत्कृत करनेवाले गहन और गम्भीर ग्रन्थ लिखे है वैसे सामान्य मनुष्य भी सरलता से समझ सके वैसा लोकभोग्य साहित्य भी लिखा है । उन्होंने जैसे गद्य लिखा है वैसे पद्यात्मक रचनायें भी लिखी हैं । उन्होंने जिस प्रकार मौलिकग्रन्थों की रचना की है वैसे प्राचीन आचार्यों के महत्त्वपूर्ण संस्कृत - प्राकृत भाषा के ग्रन्थों पर विवेचन एवं टीकायें भी लिखी हैं ।
वे महापुरुष जैसे जैनधर्म-दर्शन के पारंगत विद्वान थे वैसे अन्य धर्म एवं दर्शनों के भी तलस्पर्शी ज्ञाता थे । उनके साहित्य में उनकी व्यापक विद्वता एवं समन्वयात्मक उदार दृष्टि का सुभग दर्शन होता है । वे प्रखर तार्किक होने से, स्वसम्प्रदाय में या पर सम्प्रदाय में जहाँ जहाँ भी तर्कहीनता और सिद्धान्तों का विसंवाद दिखायी दिया वहाँ उन्होंने निर्भयता से स्पष्ट शब्दों में आलोचना की है I ऐसे अलोचनात्मक ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं
अध्यात्ममतपरीक्षा, देवधर्मपरीक्षा, दिक्पट ८४ बोल, प्रतिमाशतक, महावीर जिन स्तवन वगैरह ।
उनके लिखे हुए जैनतर्कभाषा, स्याद्वादकल्पलता, ज्ञानबिन्दु, नयप्रदीप, नयरहस्य, नयामृततरंगिणी, नयोपदेश, न्यायालोक, खण्डनखाद्यखण्ड, अष्टसहस्त्री वगैरह अनेक दार्शनिक ग्रन्थ उनकी विलक्षण प्रतिभा का सुन्दर परिचय देते हैं । नव्यन्याय की तर्कप्रचुर शैली में जैन तत्त्वज्ञान को प्रतिपादित करने का भगीरथ कार्य सर्वप्रथम उन्होंने ही सफलतापूर्वक सम्पन्न किया है ।