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________________ उनकी उज्ज्वल यशोगाथा सर्वत्र फैलने लगी । अनेक विद्वान्, पण्डित, जिज्ञासु, वादी, भोजक... याचक... उनके पास आने लगे । यशोविजयजी के दर्शन कर, उनका सत्संग कर वे अपने आपको धन्य मानने लगे। अहमदाबाद में नागोरी धर्मशाला में जब वे पधारे तो धर्मशाला जीवन्त तीर्थधाम बन गयी ! गुजरात का मुगल सूबा महोब्बतखान भी, यशोविजयजी की प्रशंसा सुनकर उनके दर्शन करने गया । खान की प्रार्थना से यशोविजयजी ने १८ अद्भुत अवधान-प्रयोग कर दिखाये । खान बहुत ही प्रसन्न और प्रभावित हुआ । जिनशासन का प्रभाव विस्तृत हुआ । उस समय जिनशासन के अधिनायक थे आचार्य देव श्री विजयदेवसूरिजी। श्री जैन संघ ने आचार्य श्री को विनती की : 'गुरुदेव, ज्ञान के सागर और महान्, धर्मप्रभावक श्री यशोविजयजी को उपाध्याय पद पर स्थापित करें, ऐसी संघ की भावना है। आचार्यश्री ने अपनी अनुमति प्रदान की । श्री यशोविजयजी ने ज्ञानध्यान के साथ साथ २० स्थानक तप की भी आराधना की । संयमशुद्धि और आत्मविशुद्धि के मार्ग पर वे विशेष रूप से अग्रसर हुए । वि. सं. १७१८ में वे महापुरुष उपाध्याय पद से अलंकृत हुए । अनेक वर्षों की अखण्ड ज्ञानसाधना एवं जीवन के विविध अनुभवों के परिपाक स्वरुप अनेक ग्रन्थरत्नों का सर्जन वे करते रहे । उन ग्रन्थरत्नों का प्रकाश अनेक जिज्ञासुओं के हृदय को प्रकाशित करने लगा । अनेक मुमुक्षुओं को स्पष्ट मार्गदर्शन देता रहा । अखण्ड ज्ञानोपासना और विपुल साहित्य सर्जन के कारण उपाध्याय श्री यशोविजयजी, विद्वानों में 'लघुहरिभद्र' के नाम से प्रसिद्ध हुए । जीवनपर्यन्त लोककल्याण का और साहित्यसर्जन का कार्य चलता ही रहा। करीबन् २५ वर्ष तक उपाध्यायपद को शोभायमान करते हुए जिनशासन की अपूर्व सेवा करते रहे । वि० सं० १७४३ का चातुर्मास उन्होंने डभोई (गुजरात) में किया और वहाँ अनशन कर वे समाधिमृत्यु को प्राप्त हुए । स्वर्गवास-भूमि पर स्तूप (समाधि-मन्दिर) बनाया गया । आज भी वह स्तूप विद्यमान है। ऐसा कहा जाता
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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