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गुरुदेव ने कहा : 'महानुभाव, आपकी बात सही है । मैं भी चाहता हूँ कि यशोविजयजी, विद्याधाम काशी में जाकर अध्ययन करें, परन्तु वहाँ के पण्डित पैसे लिये बिना अध्ययन नहीं कराते हैं ।'
धनजी सूरा ने कहा : 'गुरुदेव, आप उसकी जरा भी चिन्ता नही करें। यशोविजयजी के अध्ययन में जितना भी खर्च करना पड़ेगा, वह मैं करूँगा । मेरी सम्पत्ति का सदुपयोग होगा । ऐसा पुण्यलाभ मेरे भाग्य में कहाँ ?'
एक दिन यशोविजयजी और विनयविजयजी ने, गुरुदेव से आशीर्वाद लेकर, काशी की ओर प्रयाण कर दिया । काशी पहुँचकर, षड्दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् भट्टाचार्य के पास अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । भट्टाचार्य के पास दूसरे ७०० छात्र विविध दर्शनों का एवं धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते थे। तेजस्वी बुद्धिप्रतिभा के धनी श्री यशोविजयजी ने शीध्रगति से न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त और बौद्धदर्शन आदि का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया । 'न्यायचिंतामणी' जैसे न्यायदर्शन के महान् ग्रन्थ का भी अवगाहन किया । जैनदर्शन के सिद्धान्तों का परिशीलन तो चल ही रहा था । स्यादवाद-दृष्टि से सभी दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भी वे करते रहे । काशी के श्रेष्ठ विद्वानों में उनकी ख्याति फैलने लगी।
वह जमाना था वाद-विवाद का । एक बार एक विद्वान् संन्यासी ने बड़े आडम्बर के साथ काशी में आकर विद्वानों के सामने शास्त्रवाद करने का एलान कर दिया । उस संन्यासी के साथ शास्त्रवाद करने के लिये जब कोई भी पण्डित या विद्वान् तैयार नहीं हुए तब श्री यशोविजयजी तैयार हुए । वाद-विवाद में उन्होंने उस संन्यासी को पराजित कर दिया । विद्वत्सभा विस्मित हो गई । काशी के विद्वानों ने और जनता ने मिलकर विजययात्रा निकाली । बाद में यशोविजयजी को सन्मान के साथ 'न्यायविशारद' की गौरवपूर्ण उपाधि प्रदान की । काशी के विद्वानों ने जैन मुनि का सम्मान किया हो, ऐसा यह पहला ही प्रसंग था ।
काशी में तीन वर्ष रहकर, यशोविजयजी आग्रा पधारे । वहाँ एक समर्थ विद्वान् के पास चार वर्ष रहकर विविध शास्त्रों का एवं दर्शनों का विशेष गहराई से अध्ययन किया । बाद में विहार कर वे गुजरात पधारे ।