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करेगा' यह कल्पना उनको हर्षविभोर बनाती है तो 'ऐसा विनीत बुद्धिमान और प्रसन्नमुख पुत्र गृहत्याग कर, माता-पिता एवं स्नेही - स्वजनादि को छोड़कर चला जायेगा क्या ?' यह विचार उनको उदास भी बना देता है । उनका मन द्विधा में पड़ गया ।
गुरुदेव श्री नयविजयजी वहाँ से बिहार कर पाटण पधारे । चातुर्मास पाटण में किया ।
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कनोड़ा में जशवन्त बेचैन था । गुरुदेव की सौम्य और वात्सल्यमयी मुखमुद्रा उसकी दृष्टि में तैरती रहती है । उसका मन गुरुदेव का सान्निध्य पाने को तरसता है । खाने-पीने में और खेलने-कूदने में उसकी कोई रुचि नहीं रही । उसका मन उदास हो गया । बारबार उसकी आँखें भर आती थीं । अपने प्यारे पुत्र की उत्कट धर्मभावना देख माता-पिता के हृदय में भी परिवर्तन आया । जशवन्त को लेकर वे पाटण गये । गुरुदेव श्री नयविजयजी के चरणों में जशवन्त को समर्पित कर दिया ।
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शुभ मुहूर्त में जशवन्त की दीक्षा हुई । जशवन्त 'मुनि जशविजय' बन गया । बाद में जशविजयजी 'यशोविजयजी' नाम से प्रसिद्ध हुए ।
छोटा भाई पद्मसिंह भी संसार त्यागकर श्रमण बना। उनका नाम पद्मविजय रखा गया । यशोविजय और पद्मविजय की जोडी श्रमण-संघ में शोभायमान बनी रही । जैसे राम और लक्ष्मण !
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साधु बनकर दोनों भाई गुरुसेवा में और ज्ञानाभ्यास में लीन हो गये । दिन-रात उनका साधनायज्ञ चलता रहा । वि० सं० १६९९ में वे अहमदाबाद पधारे। वहाँ उन्होंने गुरु आज्ञा से अपनी अपूर्व स्मृतिशक्ति का परिचय देनेवाले 'अवधान प्रयोग' कर दिखाये । यशोविजयजी की तेजस्वी प्रतिभा देखकर, श्रेष्ठिरत्न धनजी सूरा अत्यन्त प्रभावित हुए । उन्होंने गुरुदेव श्री नयविजयजी के पास आकर विनती की :
'गुरुदेव, श्री यशोविजयजी सुयोग्य पात्र हैं। बुद्धिमान् हैं और गुणवान हैं । ये दूसरे हेमचन्द्रसूरि बन सकते हैं। आप उनको काशी भेजें और षड्दर्शन का अध्ययन करायें ।'