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- विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में यह महापुरुष हो गये । इनके जीवन के विषय में अनेक दन्तकथायें एवं किंवदन्तियां प्रचलित हैं। परन्तु सत्रहवीं शताब्दी में जिसकी रचना हुई है उस 'सुजसवेली भास' नाम की छोटी सी कृति में उपाध्यायजी का यथार्थ जीवनवृत्तान्त संक्षेप में प्राप्त होता है । उपाध्यायजी के जीवन के विषय में यही कृति प्रमाणभूत मान सकते हैं । संक्षिप्त जीवनपरिचय :
उत्तर गुजरात में पाटन शहर के पास 'कनोड़ा' गाँव आज भी मौजूद है। उस गाँव में नारायण नाम के श्रेष्ठि रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था सौभाग्यदेवी। पति-पत्नी सदाचारी एवं धर्मनिष्ठ थे। उनके दो पुत्र थे : जशवन्त और पद्मसिंह।
जशवन्त बचपन से बुद्धिमान् था। बचपन में भी उसकी समझदारी बहुत अच्छी थी । और उसमें अनेक गुण दृष्टिगोचर होते थे।
उस समय के प्रखर विद्वान् मुनिराज श्री नयविजयजी विहार करते करते वि. सं. १६८८ में कनोड़ा पधारे । कनोड़ा की जनता श्री नयविजयजी की ज्ञानवैराग्य भरपूर देशना सुनकर मुग्ध हो गई। श्रेष्ठि नारायण भी परिवार सहित गुरुदेव का उपदेश सुनने गये । उपदेश तो सभी ने सुना, परन्तु बालक जशवत के मन पर उपदेश का गहरा प्रभाव पड़ा । जशवन्त की आत्मा में पड़े हुए त्याग-वैराग्य के संस्कार जाग्रत हो गये । संसार का त्यागकर चारित्रधर्म अंगीकार करने की भावना माता-पिता के सामने व्यक्त की । गुरुदेवश्री नयविजयजी ने भी जशवत की बुद्धिप्रतिभा एवं संस्कारिता देख, नारायण श्रेष्ठि एवं सौभाग्यदेवी को कहा : 'भाग्यशाली, तुम्हारा महान् भाग्य है कि ऐसे पुत्ररत्न की तुम्हें प्राप्ति हुई है। भले ही उम्र में जशवन्त छोटा हो, उसकी आत्मा छोटी नहीं है। उसकी आत्मा महान् है। यदि तुम पुत्र-मोह को मिटा सको और जशवन्त को चारित्रधर्म स्वीकार करने की अनुमति दे दो, तो यह लड़का भविष्य में भारत की भव्य विभूति बन सकता है। लाखों लोगों का उद्धारक बन सकता है । ऐसा मेरा अन्तःकरण कहता है।'
गुरुदेव की बात सुनकर नारायण और सौभाग्यदेवी की आँखें चूने लगी। वे आँसू हर्ष के थे और शोक के भी। 'हमारा पुत्र महान् साधु बन, अनेक जीवों का कल्याण करेगा... श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के धर्मशासन को उज्ज्वल