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विद्या
१९१ अन्नोन्नाणुरायाणं इमं तं च त्ति विभयणमसक्कं । जह दूद्धपाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ॥
'दूध और पानी की तरह आपस में ओत-प्रोत, समरस बने जीव और पुद्गल के विशेष पर्याय में 'यह जीव है और यह पुद्गल है, ऐसा वर्गीकरण करना असम्भव है। अत: उन दोनों के अविभक्त पर्यायों को समझना चाहिए !' इस तरह श्रुत-ज्ञान के माध्यम से जीव और पुद्गल का भेद-ज्ञान ही 'विद्या' है।
अविद्यातिमिरध्वंसे हशा विद्याञ्जनस्पृशा । पश्यन्ति परमात्मानं आत्मान्येव हि योगिनः ॥१४॥८॥
अर्थ : योगीपुरुष, अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश होते ही विद्या-अंजन को स्पर्श करनेवाली दृष्टि से आत्मा में ही परमात्मा को देखते हैं !
विवेचन : अनादिकाल से चला आ रहा अविद्या का अन्धकार नष्ट होते ही योगीजनों की दृष्टि में तत्त्वज्ञान के अंजन का दर्शन होता है । इस अंजनअंचित दृष्टि से वह अन्तरात्मा में दृष्टिपात करता है । तब उन्हें वहाँ किसके दर्शन होते हैं ? सच्चिदानन्दमय परमपिता परमेश्वर के ! फलस्वरूप महायोगी सच्चिदानन्द की पूर्ण मस्ती में डोल उठता है और जन्म-जन्मांतर के दुष्कर संघर्ष के पश्चात् प्राप्त अपूर्व, अद्भुत और कल्पनातीत सफलता से अभिभूत हो, उनका हृदय पूर्णानन्द से भर जाता है । वे पूर्णानन्दी बन जाते हैं। .
अविद्या का नाश ! तत्त्वदृष्टि का अंजन ! अन्तरात्मा में परमात्म-दर्शन !
परमात्म-दर्शन की पार्श्वभूमि में दो प्रमुख बातें रही हुई हैं, जिनका प्रस्तुत अष्टक में समग्र दृष्टि से विवेचन किया गया है । वह है, अविद्या का नाश और तत्त्वबुद्धि का अंजन !
अब हम गुणस्थानक* के माध्यम से प्रस्तुत विकासक्रम का विचार करें! अविद्या का अन्धकार प्रथम गुणस्थानक पर होता है ! अन्धकार से आवृत्त जीवात्मा
• * देखिए परिशिष्ट में : गुणस्थानक का स्वरूप