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________________ १९२ ज्ञानसार 'बाह्यात्मा' कहलाती है । चतुर्थ गुणस्थानक पर अविद्या के अन्धकार का नाश होता है और 'तत्त्वबुद्धि' (विद्या) का उदय ! बारहवें गुणस्थानक तक तत्त्वबुद्धि विकसित होती रहती है ! ऐसे तत्वबुद्धि-धारक जीवात्मा को 'अन्तरात्मा' कही गयी है। जबकि यही 'अन्तरात्मा' तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानक पर पहुँचकर परमात्मा का रुप धारण कर लेती है, परमात्मा बन जाती है। तब यह प्रश्न उपस्थित होगा कि भला, हम कैसे जान सकते हैं कि हम बाह्यात्मा हैं ? अन्तरात्मा हैं ? अथवा परमात्मा हैं ? इसका उत्तर है । हम स्पष्ट रूप में जान सकते हैं कि हम क्या हैं । उसे जानने की पद्धति निम्नानुसार है । यदि हममें विषय और कषायों की प्रचुरता है, तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा है, गुणों के प्रति द्वेष है और आत्मज्ञान नहीं है, तो समझ लेना चाहिए कि हम 'बाह्यात्मा' है। यदि हम में तत्त्वश्रद्धा जगी है, अणुव्रत-महाव्रतों से जीवन संयमित है, कम-ज्यादा प्रमाण में मोह पर विजयश्री प्राप्त की है, विजयश्री पाने का पुरुषार्थ चालू है, तब समझ लेना चाहिए कि हम 'अन्तरात्मा है और चतुर्थ गुणस्थानक से लेकर बारहवें गुणस्थानक तक कहीं न कहीं अवश्य है । ___ केवलज्ञान प्राप्त हो गया हो, योगिनिरोध कर दिया हो, समग्र कर्मों का क्षय हो गया हो, सिद्धशिला पर आरुढ़ हो गये हों, तब समझ लेना चाहिए कि हम ‘परमात्मा' हैं । तेरहवें या चौदहवें गुणस्थानक पर अधिष्ठित हो गये हैं । मानसिक शान्ति के बिना यानी शोक, मद, मदन, मत्सर, कलह, कदाग्रह, विषाद और वैरवृत्ति शान्त हुए बिना अविद्या भस्मीभूत नहीं होती। मोहान्धता दूर नहीं होती । अतः मन को शान्त करना चाहिए, तभी परमात्मदर्शन सम्भव है। परमात्मऽनुध्येयः सन्निहितो ध्यानतो भवति' ! - अध्यात्मसार संसार के सभी आल-पंपाल को छोड़छाड़ कर, मन को शुभ आलम्बन में स्थिर कर, यदि ध्यान धरा जाय तो मन शान्त होता है। शोकादि विकार उपशान्त हो जाते हैं । तब आत्मा की ज्योति सहज प्रकाशित हो उठेगी । 'शान्ते मनसि ज्योतिः प्रकाशते शान्तमात्मनः सहजम्'-आध्यात्मसारे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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