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________________ विद्या १८९ नहीं होता । मोहमदिरा के जाम पर जाम चढ़ाकर नशे में धुत्त बहिरात्मा के सामने दर्पण धर दिया जाता है : "तू अपने आपको पहचान ! " यदि उस दर्पण में ध्यानपूर्वक देखा जाए तो हम खुद को कैसे लगेंगे ? अनन्तानंत कर्म - बन्धनों से जकड़े, श्रमित, निस्तेज, पराधीन, परतंत्र और सर्वस्व गँवाकर हारे हुए दर-दर के भिखारी से । घर और धन के प्रति ममता की बुद्धि, पराधीनता और परतन्त्रता में वृद्धि करती है । ज्ञानादि स्व-सम्पत्ति को देखने नहीं देती और बाह्यभाव के रंगमंच पर नानाविध नाच नचाती है। 'अहं' और 'मम' के मार्ग पर गतिमान जीव की न जाने कैसी दुर्दशा होती है, इसे जानने के लिए भूतकालीन पुरुषों की ओर दृष्टिपात करना जरूरी है । सुभूम चक्रवर्ती और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के दिल दहलानेवाले वृत्तान्तों को जानना आवस्यक है । मगधसम्राट कोणिक और वर्तमान में जर्मनी के भूतपूर्व तानाशाह हिटलर के करूण अन्त का इतिहास जानना परमावश्यक है ! ' सेंट हेलो' द्वीप पर जीवन-संध्या की अन्तिम किरणों में सांस लेते महाबली नेपोलियन की कहानी का जरा अवगाहन करो । अहंकार और ममकार के महा भयंकर पाश की पाशविकता और क्रूरता को जानकर, उस पाश से मुक्त होने का महान् पुरुषार्थ करना चाहिए । मिथोयुक्तपदार्थानामसंक्रमचमत्क्रिया । चिन्मात्रपरिणामेन विदुषैवाऽनुभूयते ॥ १४ ॥ ७ ॥ अर्थ : आपस में परस्पर मिश्रित जीव- पुद्गलादि पदार्थों का भिन्नतारुप चमत्कार, ज्ञानमात्र परिणाम के द्वारा विद्वान पुरुष अनुभव करते हैं । 1 विवेचन : जड-चेतन तत्त्वों का यह अनादि-अनंत विश्व है ! हर जडचेतन तत्त्व का अस्तित्व स्वतंत्र है । उसका स्वरुप भी स्वतंत्र है । लेकिन जड़ चेतन क्षीर-नीर की तरह एक-दूसरे मे घुल-मिलकर रहे हुए हैं । उक्त तत्त्वों की भिन्नता को मात्र ज्ञान - प्रकाश से देख सकते हैं । : प्रधानतया पाँच द्रव्य ( जड-चेतन) इस विश्व में विद्यमान हैं। १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४.
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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