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ज्ञानसार
'मैं और मेरा' – इसी अविद्या से आत्मा बन्धनयुक्त बनती है । इसे परिलक्षित कर पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने संसार के तीन तत्त्वों की ओर निर्देश किया है ।
शरीर में 'मैं' !
घर और धन में 'मेरा' !
यही 'मैं और मेरा' - का अनादिकालीन अहंकार और ममकार (अविद्या), जीव को संसार की भूलभुलैया में भटका रहा है। कर्म के बन्धनों में जकड़ रहा है । नरक - निगोद के दुःखों में सड़ा रहा है । दुःख-सुख के द्वंद्व में झुला रहा
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शरीर के प्रति मैं-ने की बुद्धि बहिरात्मभाव है । 'कायादि बहिरात्मा'शरीर में आत्मीयता की बुद्धि बहिरात्म - दशा है । ऐसी अवस्था में प्रायः विषयलोलुपता और कषायों का कदाग्रह स्वच्छंदता से पनपता है । उक्त अवस्था के लक्षण हैं : तत्त्व के प्रति अश्रद्धा और गुणों में प्रद्वेष । आत्मत्व का अज्ञान बहिरात्मभाव का द्योतक है । तभी पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्मसार' में कहा है :
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विषयकषायावेशः तत्वाश्रद्धा गुणेषु द्वेषः ।
आत्माऽज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात् तथा व्यक्तः ॥
इस तरह शरीर में अहंत्व की बुद्धि रखनेवाला विषय - कषाय के आवेशवश अपनी ही आत्मा को कर्म-बन्धन में आबद्ध करता है । तत्त्व के प्रति अश्रद्धा और गुणों में द्वेषभाव बनाये रखती आत्मा को कर्मलिप्त करता है, जो खुद दुःख के लिए ही होता है ।
खुद कर्म-बन्धन में जकड़ता जाता है। फिर भी उसे होश नहीं रहता कि 'मैं बन्धन में फँस रहा हूँ।' यही तो आश्चर्यचकित करनेवाली बात है । जब तक इसका अहसास न होगा, तब तक कर्म-बन्धन असह्य नहीं लगेंगे । जब तक कर्म-बन्धन-प्रेरित त्रास और सीत का अनुभव न हो, तब तक कर्मबन्धनों को तोड़ने का पुरुषार्थ नहीं होता । पुरुषार्थ में उत्साह, वेग और विजय का लक्ष