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समकित की परम पवित्रता प्राप्त होगी ।
एकबार जिस आत्मा ने सम्यग्दर्शन की अमोघ शक्ति पा ली, वह आत्मा कर्म के समरांगण में कभी पराजित नहीं होगी । ऐसी समकिती आत्मा कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बाँधती है ।
ज्ञानसार
अन्तः कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति से ज्यादा स्थिति नहीं बांधती है । यह उसकी सहज पवित्रता है ।
मनुष्य को समता का स्नान करते रहना चाहिए । समता से समकित की उज्ज्वलता मिलती है, जो स्वयं में ही आत्मा की उज्ज्वलता और पवित्रता है । समतारस में निमज्जित आत्मा के तीन प्रकार के मल का नाश होता है ।
दृशां स्मरविषं शुष्येत्, क्रोधतापः क्षयं व्रजेत् । औद्धत्यमलनाशः : स्यात् समतामृतमज्जनात् ॥ - अध्यात्मसार
दृष्टि में से विषय-वासना का जहर दूर होता है, क्रोध का आतप शान्त हो जाता है और स्वच्छन्दता की गन्दगी धुल जाती है । बस, समता - कुण्ड में स्नान करने भर की देरी है ।
समता - कुंड की महिमा तुम क्या जानो ? वह कैसा चमत्कारिक और अलौकिक है ! तुम कैसी भी असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो, भयंकर रोग से पीडित हो, उसमें स्नान कर लो । क्षणार्ध में सब व्याधि और रोग दूर हो जायेंगे। तुम्हारा शरीर कंचन सा निरोगी बन जाएगा। जीवन में कैसे भी आंतरिक दोष हों, समताकुंड़ में स्नान कर लो ! दोष कहीं नजर नहीं आयेंगे । जानते हो भरत चक्रवर्ती ने अपने जीवन में कौन सा दुष्कर तप किया था ? कौन सा बड़ा त्याग किया था ? किन महाव्रतों का पालन किया था ? कुछ भी नहीं ! फिर भी उन्होंने आत्मा के अनंत दोष क्षणार्ध में दूर कर दिये । जड - मूल से उखाड दिये । किस तरह ? सिर्फ समता - कुंड़ में स्नान करके ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने स्वरचित ग्रन्थ 'अध्यात्मसार' में इसका रहस्य अनूठी शैली में आलेखित किया है ।
आश्रित्य समतामेकां निवृत्ता भरतादयः । न हि कष्टमनुष्ठानमभूत्तेषां तु किंचन ॥