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________________ विद्या १८५ को साध्य मान लेता है। यह कभी न भूलें कि आत्मा साध्य है । अतः साध्य को जरा भी क्षति न पहुँचे इस तरह साधन के साथ व्यवहार रखना चाहिए । लेकिन अविद्या यह करने नहीं देती ! अविद्या के प्रभाव में रहा जीवात्मा शरीर के लिये एक प्रकार का ममत्व धारण कर लेता है। उसका सारा ध्यान, पूरा लक्ष शरीर ही होता है। वह हमेशा शरीर को पानी से नहलाएगा । उस पर जरा भी धब्बा न रह जाए इसकी खबरदारी बरतेगा । वह गंदा न हो जाए इसकी सावधानी रखेगा । यह सब करते हुए वह आत्मा को साफ करना तो भूल ही जाता है। उसे उसका (आत्मा का) तनिक भी खयाल नहीं रहता ! अरे भाई, कोयले को हजार बार दूध अथवा पानी से धोया जाए तो भी क्या वह सफेद होगा? ठीक उसी तरह काया, जो पूर्णरूप से अपवित्र तत्त्वों से बनी है और दूसरे को अपवित्र बनाना ही जिस का मूल स्वभाव है, उसे तुम स्वच्छ, शुद्ध और पवित्र बनाने की लाख कोशिश करो... तुम्हारा हर प्रयत्न निष्फल होगा। यः स्नात्वा समताकुण्डे हित्वा कश्मलजं मलम् । पुनर्न याति मालिन्यं सोऽन्तरात्मा परः शुचिः ॥१४॥५॥ अर्थ : जो समता रूपी कुंड़ में स्नान कर पाप से उत्पन्न मल को दूर करती है, दुबारा मलिन नहीं बनती, ऐसी अन्तरात्मा विश्व में अत्यन्त पवित्र है। विवेचन : तो क्या तुम्हें स्नान करना ही है ? पवित्र बनना ही है ? आओ, तुम्हें स्नान करने का सुरम्य स्थान बताता हूँ, स्नान के लिए उपयुक्त जल बताता हूँ... । एकबार स्नान किया नहीं कि पुनः स्नान करने की इच्छा कभी नहीं होगी। इसकी आवश्यकता भी नहीं लगेगी । तुम ऐसे पवित्र बन जाओगे कि वह पवित्रता कालान्तर तक चिरस्थायी बन जाएगी । लो यह रहा समता का कुंड ! यह उपशम के अथाह जल से भरा पडा है। इसमें प्रवेश कर तुम सर्वांगीण स्नान करो । स्वच्छंद बनकर इसकी उत्ताल तरंगों के साथ जी भरकर केलि-क्रीडा करो । तुम्हारी आत्मा पर लगा हुआ पापपंक धुल जाएगा और आत्मा पवित्र बन जाते विलम्ब नहीं लगेगा । साथ ही
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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