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ज्ञानसार
पिता का शुक्र और माता का रूधिर, इन दोनों के संसर्ग से शरीर की उत्पत्ति होती है । जीवात्मा वहाँ प्रवेश कर प्रथम बार शुक्र - रुधिर के पुद्गलों का आहार ग्रहण कर, शरीर का निर्माण करता है । यह हुई उसकी उत्पत्ति की
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बात ।
भला, उस शरीर का स्वभाव कैसा है ? पवित्र को अपवित्र करने का, शुद्ध को अशुद्ध बनाने का, सुगन्ध को दुर्गंध में बदलने का और सुडौल को बेढंगा बनाने का । तुम लाख कपूर, कस्तुरी और चंदन का विलेपन करो, शरीर उस विलेपन को अल्पावधि में ही अशुद्ध, अपवित्र और दुर्गंधमय बना देगा | गर्म / शीतल पर फव्वारे के नीचे बैठकर सुगंधित साबुन मल-मलकर लाख स्नान कर लो, ऊँचे इत्र का उपयोग कर भले महका दो... लेकिन दो तीन घंटे बीते न बीते, शरीर अपने मूल स्वभाव पर गये बिना नहीं रहेगा । पसीने से तरबतर, मल से गंदा और नानाविध रोग-व्याधि से ग्रस्त बन जाते देर नहीं लगेगी । इस तरह शरीर को जल और मिट्टी से पवित्र बनाने में जीव की कल्पना न जाने कैसी भ्रामक और असंगत है ? शारीरिक पवित्रता को ही अपनी पवित्रता मानने की मान्यता कैसी हानिकारक है ? यह सोचना चाहिए ।
अतः शरीर को साध्य मानकर उसके साथ जो व्यवहार किया जाता है उसमें आमूल परिवर्तन होना जरुरी है । लेकिन प्रवृत्ति के परिवर्तन में वृत्ति का परिवर्तन पहले होना चाहिए। शरीर तो साधन है, ना कि साध्य । अतः शरीर के साथ सम्बन्ध सिर्फ एक साधन के रूप में ही होना चाहिए। ठीक वैसे व्यवहार भी साधन के रुप में ही होना चाहिए ।
मानव-शरीर मोक्षमार्ग की आराधना का सर्वोत्तम साधन है । अतः शरीर की एक-एक धातु, एक - एक इन्द्रिय और एक - एक स्पंदन का उपयोग मोक्षमार्ग की आराधना के लिए करना चाहिए। शरीर के माध्यम से आत्मा को पवित्र, शुद्ध और उज्ज्वल बनाना है। लेकिन खेद और आश्चर्य की बात तो यह है कि भ्रान्त मनुष्य आत्मा को ही साधन बनाकर शरीर को शुद्ध और पवित्र बनाने की चेष्टा करता है । उसे पवित्र बनाने हेतु वह ऐसे अजीबोगरीब उपायों का अवलम्बन करता है कि जिससे आत्मा अधिकाधिक कर्म-मलिन होती जाती है । साधन / साध्य का निर्णय करने में गफलत कर साध्य को साधन और साधन
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