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विद्या
१८३ ऊँची चोटी पर चढकर दृष्टि अनंत आकाश की ओर स्थिरकर, सनसनाते वायु के झोंकों में जीवन की अस्थिरता का करूण संगीत श्रवण करना... और तब जीवन की चाहना से निवृत्त होने का दृढ़ संकल्प कर लेना । वर्षाऋतु के मनोहर मौसम में वन-निकुंज में अड्डा जमा कर अकाश में आंखमिचौली खेलते बादलों मे काया की क्षणभंगुरता की गंभीर ध्वनि सुन लेना और काया की स्पृहा को तजने का मन ही मन निर्णय कर लेना ! परिणाम यह होगा कि अविद्या का अनादि आवरण विदीर्ण हो जाएगा और 'विद्या' का देदीप्यमान सौन्दर्य सोलह कलाओं से विकसित हो जायेगा । तब तुम इस दुष्ट 'त्रिकोण' से मुक्त हो जाओगे ! परिणाम यह होगा कि तुम सहज / स्वाधीन ज्ञानादि लक्ष्मी, आत्मा का स्वतंत्र अनंत जीवन और अक्षय आत्मद्रव्य की अगम / अगोचर सृष्टि में पहुँच जाओगे । जहाँ पूर्णानन्द और सच्चिदानन्द की सुखद अनुभूति होती है ।
लक्ष्मी, जीवन और शरीर-विषयक यह नूतन विचार-प्रणालि कैसी आह्लादक, अनुपम और अन्तःस्पर्शी है ! कैसा मृदु आत्मसंवेदन और रोम-रोम को विकस्वर करनेवाला मोहक स्पंदन पैदा होता है ! जीर्ण-शीर्ण प्राचीनअनादिकालीन विचारधारा की विक्षुब्धता विवशता और विवेक-विकलता का तनिक मात्र स्पर्श नहीं ! कैसी सुखद परमानन्दमय अवस्था... !
शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं समर्थेऽशुचीसम्भवे । देहे जलादिना शौचभ्रमो मूढस्य दारुणः ॥१४॥४॥
अर्थ : पवित्र पदार्थ को भी अपवित्र करने में समर्थ और अपवित्र पदार्थ से उत्पन्न हुए इस शरीर को पानी वगैरह से पवित्र करने की कल्पना दारुण भ्रम
है।
विवेचन : शरीरशुद्धि की तरफ झुके हुए मनुष्य को तनिक तो सोचना चाहिए कि शरीर की उत्पत्ति कैसे हुई है, वह कहाँ से उत्पन्न हुआ है और उसका मूल स्वभाव कैसा है।
सुक्कं पिउणो माउए सोणियं तदुभयं पि संसटुं । तप्पढ़माए जीवो आहार तत्थ उत्पन्नो ॥ -भवभावना