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विवेचन
लक्ष्मी आयुष्य शरीर
इन तीन तत्त्वों के प्रति जीवात्मा का जो अनादि - अनंतकाल से दृष्टिकोण रहा है, उसको मिटाकर एक नया लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह पूज्य उपाध्यायजी कर रहे हैं और 'अविद्या' के आवरण को छिन्न-भिन्न, तारतार करने के लिए ऐसे नव्य दृष्टिकोण की नितान्त आवश्यकता है - यह बात समझने के लिए 'अभ्रबुद्धि, निपुण - बुद्धि का आधार लेने की सूचना दी है ।
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ज्ञानसार
लक्ष्मी की लालसा, जीवन की चाहना और शरीर की स्पृहा ने जीवात्मा की बुद्धि को कुंठित कर दिया है, दिशाहीन बना दिया है। साथ ही साथ उसकी विचारशक्ति को सीमित बना दिया है ! जीव की अन्तः चेतना को मिट्टी के ढेर के नीचे दबा दिया है ! वस्तुतः लक्ष्मी, जीवन और शरीर के 'त्रिकोण' के व्यामोह पर समग्र संसार का बृहद् उपन्यास रचा गया है ! इस उपन्यास का कोई भी पन्ना खोलकर पढो, यह त्रिकोण दिखायी देगा ! राग और द्वेष, हर्ष और विषाद, पुण्य और पाप, स्थिति और गति, आनन्द और उद्वेग... आदि असंख्य द्वंद्वों के मूल में लक्ष्मी, जीवन और शरीर का त्रिकोण ही कार्यरत है ! आशा की मीनारें और निराशाओं के कब्रस्तान इसी त्रिकोण पर खड़े हैं । यदि यों कहें तो अतिशयोक्ति न होगी की पवित्र, उदात्त, आत्मानुलक्षी एवं सर्वोच्च भावनाओं का स्मशान एक मात्र यही त्रिकोण है ! उक्त 'अविद्या त्रिकोण' को उसके वास्तविक स्वरूप में देखने के लिए यथार्थदर्शी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसके बिना आत्मा की पूर्णता की ओर प्रयाण असम्भव है। साथ ही पूर्णानन्द की अनुभूति भी अशक्य है ।
इसको जानने परखने के यथार्थ दृष्टिकोण ये हैं :
लक्ष्मी समुद्र - तरंग जैसी चपल है ।
जीवन वायु के झोंके की तरह अस्थिर है !
शरीर बादल की भाँति क्षणभंगुर है !
पूर्णिमा की सुहानी रात्रि में किसी समुद्र के शान्त किनारे आसन जमाकर सागर की केलि-क्रीड़ा करती उत्ताल तरंगों में लक्ष्मी की चपलता के दर्शन कर उसकी लालसा को सदा के लिए तिलांजलि दे देना ! किसी पर्वतमाला की