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विद्या
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ना ही किसी प्रकार का विषाद !
परसंयोग की अवस्था में मोह को आत्मप्रदेश में प्रवेश करने का मार्ग मिल जाता है । इसे मत भूलो कि जहाँ पर-संयोग से सुख सुविधा पाने की कल्पना की नहीं कि मोह-महाराजा का दबे पांव बिना किसी आहट के, आत्मभूमि में प्रवेश हुआ समझो । अतः पर-संयोग में सुख की कल्पना का उच्छेदन करने हेतु 'पर-संयोग अनित्य है,' ऐसी ज्ञानष्टि अपलक खुली रखने का आदेश दिया गया है।
आत्मा ने स्वयं सुख की कल्पना नहीं की है। अनादि काल से उसने स्वयं में सुख का दर्शन नहीं किया है ! अतः आत्मा को स्वयं में सुख का दर्शन हो, इसलिए "मैं नित्य, अविनाशी, अविनश्वर हूँ", ऐसी तत्त्वदृष्टि दी गयी है ! जब तक ये दोनों दृष्टियाँ खुल नहीं जाती तब तक मोह आत्म-भूमि में प्रवेश पाने में सफल बन जाता है और भयंकर विनाश करता है । अलबत्ता, बर्बादी के साथ वह मोह आत्मभूमि के मालिक को कुछ सुख-सुविधाएँ अवश्य प्रदान करता है। ताकि सुख-सुविधाओं का चाहक लालची मालिक उसके खिलाफ बगावत न कर दे । जेहाद का नारा बुलन्द न कर दे ! जिस तरह अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त आंशिक मान-सन्मान और सर्वोच्च पदों के इनाम-इकराम के लालची कुछ भारतीय लोग भारत-भूमि पर उनके राज्य शासन की आखिरी दम तक देशद्रोही हिमायत करते रहे ! ठीक उसी तरह जब तक हम मोह-महाराज द्वारा प्रदत्त आंशिक सुख-सुविधाएँ भोगते रहेंगे तब तक आत्म-द्रोह करते नहीं अघाएंगे। बल्कि समय पड़ने पर अपनी इस कलुषित वृत्ति को नष्ट करने के बजाय बढाते ही जाएँगे! क्या ऐसे घृणित आत्मद्रोही बने रहकर, हम अपनी आत्मभूमि पर मोह-महाराज का राज्य-शासन चिरकाल तक बना रहे, इसमें खुश हैं ?
तरंगतरलां लक्ष्मीमायुर्वायुवदस्थिरम् । अदभ्रधीरनुध्यायेदभ्रवद् भंगुरं वपुः ॥१४॥३॥
अर्थ : निपुण व्यक्ति लक्ष्मी को समुद्र-तरंग की तरह चपल, आयुष्य को वायु के झोंके की तरह अस्थिर और शरीर को बादल की तरह विनश्वर मानता