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________________ १८० ज्ञानसार विवेचन : जो मुनि अपनी आत्मा को अविनाशी मानता है और पर पदार्थ के सम्बन्ध को विनाशी देखता है, उसके आत्मप्रदेश में घुसने के लिए मोह रूपी चोर को कोई राह नहीं मिलती ! उसकी स्खलना देखने के लिए उसे कोई जगह उपलब्ध नहीं होती। यहाँ निम्नांकित तीन बातों की और हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है : आत्मा का अविनाशीरूप में दर्शन । परपुद्गल–संयोग का विनाशी रूप में दर्शन । आत्मप्रदेश में मोह का प्रवेश निषेध । यदि मारक मोह की असह्य विडम्बनाओं से मन उद्विग्न हो गया हो और उससे मुक्त होने की कामना तीव्र रूप से उत्पन्न हो गयी हो, तो ये तीन उपाय इस कामना को सफल बनाने में पूर्णतया समर्थ हैं । लेकिन इसके पूर्व मोह को आत्मप्रदेश पर पाँव न रखने देने का दृढ़ संकल्प अवश्य होना चाहिए । मोह के सहारे आमोद-प्रमोद और भोगविलास करने की वृत्तियों का असाधारण दमन होना चाहिए । तभी आत्मा की ओर देखने की प्रवृत्ति पैदा होगी और आत्मा का अविनाशी स्वरुप अवलोकन करने की आनन्दानुभूति होगी। फलतः पर-पुद्गलों का संयोग व्यर्थ प्रतीत होगा । . हमें आत्मा के अविनाशी स्वरुप का दर्शन केवल एकाध पल, घंटा, माह अथवा वर्ष के लिए नहीं करना है, अपितु जब-जब स्व-आत्मा अथवा अन्य आत्मा की ओर दृष्टिपात करें तब-तब 'आत्मा अविनाशी है,' का संवेदन होना चाहिए । अविनाशी आत्मा का दर्शन जब सुखद संवेदन पैदा करेगा तब नश्वर शरीर और भौतिक संपदा के दर्शन । अनुभव के प्रति नीरसता एवं अनाकर्षण-वृत्ति का जन्म होगा । अविनाशी आत्मा के साथ स्नेह-सम्बन्ध जुड़ते ही 'परपुद्गल-संयोग अनित्य है और जो अनित्य हैं उनके समागम से मेरा क्या वास्ता ?' इस दिव्यदृष्टि का आविर्भाव होता है । पर-संयोग की अनित्यता का दर्शन मन पर ऐसा प्रभाव डालता है कि पर-संयोग करने-कराने और उसका सुखद अनुभव करने में या उसके विरह-वियोग में... न आनन्द... न प्रमोद और
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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