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विद्या
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ही कितने राग-द्वेष ग्रस्त हो जाते हो ? न जाने कितनी चिंताएँ अनायास तुम्हें सताने लगती हैं ?
"जड से मैं अलग हूँ, भिन्न हूँ । जड से मेरा क्या नाता ? वह बिगड़े या सुधरे, उससे मुझे कोई सरोकार नहीं"। प्रस्तुत वृत्ति राग-द्वेष की भयंकर समस्या को सुलझा सकती है और आत्मा समभाव में रह सकती है।
"पुद्गल का संयोग अनित्य है। उसके बल पर में सुख का भवन खड़ा नहीं करूंगा... सुहाने सपने नहीं सजाऊँगा । ऐसे संयोग को भूलकर भी कभी नित्य नहीं मानूँगा, बल्कि मेरी अपनी आत्मा ही नित्य है।" इस तत्त्व-वृत्ति के अंगीकार करने पर संयोग-वियोग के विकल्प से उत्पन्न विकलता / विह्वलता को दूर किया जा सकता है और फलस्वरूप आत्मा प्रशम-सुख का अनुभव कर सकती है।
"सिर्फ मेरी आत्मा ही पवित्र है । वह पूर्णतया शुद्ध । विशुद्ध और सच्चिदानन्द से युक्त है ।" ऐसा यथार्थ दर्शन होते ही अपने शरीर को पवित्र एवं निरोगी बनाये रखने का पुरुषार्थ रूक जाएगा। साथ ही पुरुषार्थ करते हुए प्राप्त निष्फलता / असफलता के कारण उत्पन्न अशान्ति दूर हो जाएगी। तब परिणाम यह होगा कि शरीर साध्य नहीं लगेगा, बल्कि साधन प्रतीत होगा। उसके साथ का व्यवहार केवल एक साधन रुप में रह जाएगा । फलतः शरीस्-संबंधित अनेकविध पापों से सदा के लिए बच जाओगे, मुक्त हो जाओगे ।
अत: अविद्या के गाढ़ आवरण को छिन्न-भिन्न । विदीर्ण करने का भगीरथ पुरुषार्थ प्रणिधानपूर्वक शुरु कर देना चाहिए । यह सब करते हुए यदि कोई बाधा अथवा रुकावट आये तो उसे दूर कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए ।
यः पश्येद् नित्यमात्मानमनित्यं परसंगमम् ।। छलं लब्धुं न शक्नोति तस्य मोहमलिम्लुचः ॥१४॥२॥
अर्थ : जो आत्मा को सदा-अविनाशी देखता है और परपदार्थ के सम्बन्ध को विनश्वर समझता है, उसके छिद्र पाने में मोह रुपी चोर कभी समर्थ नहीं होता।