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________________ १४. विद्या अविद्या के प्रभाव से प्रभावित जीव “विद्या" के परम तत्त्व को समझ भी पाएँगे? भवभवान्तर से अविद्या की वासना से युक्त जीवात्मा न जाने कैसे दारूण दुःखों का अनुभव लेती है ! ऐसी स्थिति में करुणासागर परम दयालु ग्रन्थकार, पौद्गलिक सुख के साधनों के प्रति अभिनव दृष्टि से देखने की, अवलोकन करने की प्रेरणा उन्हें प्रदान करते हैं। साथ ही आत्मा का यथार्थ दर्शन करने की अनोखी सूझ देते 'विद्या' प्राप्त करो और अविद्या से दूर रहो । नित्यशुच्यात्मताख्यातिरनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्या तत्त्वधीविधा, योगाचार्यैः प्रकीर्तिता ॥१४॥१॥ अर्थ : योगाचार्यों ने बताया है कि अनित्य, अशुचि और आत्मा से भिन्न पुद्गलादि में नित्यत्व, शुचित्व और आत्मत्व (ममत्व) की बुद्धि अविद्या कहलाती है । तात्त्विक बुद्धि विद्या कहलाती है। विवेचन : जो पुद्गल अनित्य हैं, अशुचि-अपवित्र हैं और आत्मतत्त्व से भिन्न हैं, उन्हें तुम नित्य, पवित्र और आत्मतत्त्व से अभिन्न मान रहे हो, तब समझ लेना चाहिए कि तुम पर 'अविद्या' का प्रबल प्रभाव है और जब तक पुद्गल-द्रव्यों को नित्य पवित्र एवं आत्मतत्त्व से अभिन्न मानते रहोगे तब तक तुम तत्त्वज्ञानी नहीं, आत्मज्ञानी नहीं, बल्कि अविद्या से आवृत्त अज्ञान से अभिभूत,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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