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________________ १७६ ज्ञानसार 1 जब तक सिर्फ इतना ज्ञान कि 'में शुद्ध आत्म द्रव्य हूँ... पर - पुद्गलों से सर्वथा भिन्न हूँ' तत्र तक पुरपुद्गलों का आकर्षण, ग्रहण और उपभोग आदि पुद्गलभाव की क्रिया जीवन में निस्तर होती है। पुद्गल - निमित्तक राग- -द्वेष और मोह के कीड़े अबाध रुप से दिल को कचोटते रहते हैं । लेकिन ज्ञानदृष्टि का द्वार खुलने भर की देर है कि पुद्गल के मनपसन्द रुप रंग, गन्ध - स्पर्शादि का व्यापार आत्मा में राग- - द्वेष और मोह-माया को पैदा करने में असमर्थ होते हैं ! साथ ही राग के स्थान पर विराग, द्वेष के बदले करुणा और मोह के स्थान पर यथार्थदर्शिता का उद्भव होता है । ज्ञानदृष्टि का द्वार बन्द रहने पर पुद्गलभाव जीवन में राग-द्वेष पैदा करते थे, लेकिन ज्ञानदृष्टि का द्वार खुलते ही वह पुद्गलभाव होते हुए भी राग-द्वेष और मोह पैदा करने में सर्वथा असमर्थ बनते हैं ! यह ज्ञानदृष्टि के द्वार खुलने का निशान है, संकेत है ! ज्ञानदृष्टि से युक्त आत्मा में विषयों का आकर्षण और कषायों का उन्माद नहीं होगा ! उनकी प्रत्येक क्रिया एक ही प्रकार की होती है, लेकिन मोहदृष्टि का प्रभाव उसे विनिपात की और खिंच जाता है ! जबकि ज्ञानदृष्टि का प्रभाव उसे भवविसर्जन की और ले जाता है | ज्ञानदृष्टि से युक्त और पुद्गलपरान्मुख स्वभाववाली आत्मा का मौन अनुत्तर होता है I
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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