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________________ १७४ ज्ञानसार क्रोधजन्य, अभिमानजन्य, कामजन्य, मायाजन्य, मोहजन्य और लोभजन्य बात जबान पर न लाना, यानी वचन का मौन । वाचिक मौन कहा जाता है। पौद्गलिक भाव की निंदा और प्रशंसा न करना वाचिक मौन है ! काया से पुद्गल-भावपोषक प्रवृत्ति का परित्याग करना, यह काया का मौन कहलाता है ! इस तरह मन, वचन, काया के मौन को ही यथार्थ मौन की संज्ञा दी गई है । जिस तरह मौन का यह निषेधात्मक स्वरूप है, उसी तरह विधेयात्मक स्वरूप भी है : निरंतर अपने मन में आत्मभावपोषक विचारों का संचार कर क्षमा, नम्रता, विनय, विवेक, सरलता एवं निर्लोभता के भावों में सदा सर्वदा खोये रहना । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के मनोरथ रचाना ! आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ध्यान धरना आदि क्रियाएँ मानसिक मौन ही हैं । इसी तरह वाणी से आत्मभावपोषक कथा करना... शास्त्राभ्यास और शास्त्र-परिशीलन करना, परमात्म-स्तुति में सतत लगे रहना... जैसे कार्य वाचिक मौन के ही द्योतक हैं । वचन का मौन कहलाता है। जबकि काया के माध्यम से आत्मभाव की ओर प्रेरित और प्रोत्साहित करती प्रवृत्तियाँ करना, कायिक मौन है। मन, वचन, काया के योगों की पुद्गलभावों से निवृत्ति और आत्मभाव में प्रवृत्ति, यह मुनि का मौन कहलाता है। ऐसे मौन को धारण कर मुनि मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ता जाता है । इस तरह के मौन से आत्मा को पूर्णानन्द की अनुभूति होती है। इसी मौन के कारण आत्मा की अनादिकालीन अशुभ वृत्ति-प्रवृत्तिओं का अन्त आता है और वह शुद्ध एवं शुभ प्रवृत्तिओं की ओर गतिमान होती है। ऐसे मौन का आदर किया जाए, ऐसे मौन को जीवन में आत्मसात् कर के मोक्षमार्ग का अनुगामी बना जाए, ऐसा अनुरोध पूजनीय उपाध्यायजी महाराज करते हैं ! ज्योतिर्मयीव दीपस्य क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी । यस्यानन्यस्वभावस्य तस्य मौनमनुत्तरम् ॥१३॥८॥ अर्थ : जिस तरह दीपक की समस्त क्रियाएँ (ज्योति का ऊँचा-नीचा होना वक्र होना और कम-ज्यादा होना) प्रकाशमय होती हैं, ठीक उसी तरह आत्मा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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