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________________ मौन १७३ न हो, यही योगी पुरुषों का सर्वश्रेष्ठ मौन है ! विवेचन : मौन की परिभाषा सिर्फ यहाँ तक ही सीमित अथवा पर्याप्त नहीं है, कि मुँह से बोलना नहीं, शब्दोच्चार भी नहीं करना । प्रायः 'मौन' शब्द इस अर्थ में प्रचलित है। लोग समझते हैं कि मुँह से न बोलना मतलब मौन और आमतौर से लोग ऐसा ही मौन धारण करते दिखायी देते हैं । लेकिन यहाँ पर ऐसे मौन की महत्ता नहीं बतायी गई है। सर्व साधारण तौर पर मनुष्य की भूमिका को परिलक्षित कर, मौन की सर्वांगसुन्दर और महत्त्वपूर्ण परिभाष की गयी है। मुँह से शब्दोच्चार नहीं करने जैसा मौन तो पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय जैसे एकेन्द्रिय जीवों में भी पाया जाता है, दिखाई पड़ता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ऐसा मौन मोक्षमार्ग की आराधना का अनन्य साधन / अंग बन सकता है ? क्या ऐसे मौन से एकेन्द्रिय जीव कर्ममुक्त अवस्था की निकटता साधने में सफल बनते हैं ? सिर्फ 'शब्दोच्चार नहीं करना', इसको ही मौन मानकर यदि मनुष्य मौन धारण करता हो और ऐसे मौन को मुक्ति का सोपान समझकर प्रवृत्तिशील हो, तो यह उसका भ्रम है। * मन का मौन : मानसिक मौन ★ वचन का मौन : वाचिक मौन * काया का मौन : कायिक मौन आत्मा से भिन्न ऐसे अनात्मभावपोषक पदार्थों का चिंतन-मनन नहीं करना । स्वप्न में भी उसका विचार नहीं करना । इसे मन का मौन अर्थात् मानसिक मौन कहा जाता है। हिंसा, चोरी, झूठ, दुराचार, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभादि अशुभ पापविचारों का परित्याग करने की प्रवृत्ति रखना ही मन का मौन है। प्रिय पदार्थ का मिलन हो और अप्रिय का वियोग हो, प्रिय का कभी विरह न हो और अप्रिय का मिलन... !' ऐसे संकल्प-विकल्पों के माध्यम से उत्पन्न विचारों के त्याग का ही दूसरा नाम मन का मौन है। मिथ्या वचन न बोलें, अप्रिय और अहितकारी शब्दोचार न करें, कड़वे और दिल को आहत करनेवाली वाणी का जीवन में कभी अवलम्बन न लें।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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