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ज्ञानसार
बढ़ता मनुष्य, क्या पौद्गलिक भाव में कभी सुख का अनुभव कर सकता है ? यदि वह पौद्गलिक भाव के वास्तविक रूप से परिचित है तो उसके लिए संसार की पौद्गलिक भाव में रमणता एकाध उन्माद से ज्यादा कुछ नहीं है।
ऐसे समय उसका एक मात्र लक्ष्य निर्मल, निष्कलंक... परम चैतन्य स्वरूप... निरंजन... निराकार ऐसा आत्मद्रव्य होता है ! मन-मन्दिर में प्रस्थापित अनंतज्ञानी परमात्मा का योगीपुरुष निरंतर ध्यान धरते हैं, उसके आगे नतमस्तक होते हैं और उसकी स्तुति करते हैं। साथ ही उक्त ध्यान, वंदन और स्तवन में वे ऐसे अलौकिक आनन्द का रसास्वादन करते हैं कि उसकी तुलना में पुद्गलद्रव्य का उपभोग उनके लिए तुच्छ और नीरस होता है। ___आत्म-ध्यान में हमेशा संतुष्टि का पुट होना चाहिए । क्योंकि बिना संतुष्टि के पौद्गलिक भावों की रमणता नष्ट नहीं होगी। मन संतुष्टि चाहता है और यह उसका मूलभूत स्वभाव है। यदि आत्मभाव में संतुष्टि नहीं मिली तो पुद्गलभाव में तृप्ति प्राप्त करने के लिए वह खूटे से छुटे सांड की तरह भाग खड़ा होगा। बालक को यदि पौष्टिक आहार न दिया जाए तो वह मिट्टी खाए बिना चैन नहीं लेगा ।
'आत्मतृप्तो मुनिर्भवेत्' मुनि को स्व-आत्मा में ही तृप्त होना चाहिए और वह भी इस हद तक की, उसमें पुद्गलभाव के प्रति कोई आस्था, स्पृहा अथवा आकर्षण नहीं रहना चाहिए । दीक्षित होने के पश्चात् श्री रामचन्द्रजी आत्मभाव में इस कदर तृप्त हो गये थे कि सीतेन्द्र ने उनके आगे दिव्य-गीत । संगीत की दुनिया रचा दी ! नृत्य-नाटक की महफिल सजा दी । फिर भी वे उन्हें अतृप्त न कर सकी । इतना ही नहीं बल्कि घाती-कर्मों का क्षय कर रामचन्द्रजी वहीं केवलज्ञान के अधिकारी बन गये !
सुलभं वागनुच्चारं मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्गलेषु अप्रवृत्तिस्तु योगीनां मौनमुत्तमम् ॥१३॥७॥
अर्थ : वाणी का अनुच्चार रूप मौन एकेंद्रिय जीवों में भी आसानी से प्राप्त कर सके । वैसा है, लेकिन पुद्गलों में मन, वचन, काया की कोई प्रवृत्ति