________________
१७१
मौन
कमजोर तिनके जैसा । फूंक मारे तो उड़ जाए ! वह अपने तन-बदन को पुष्ट शक्तिशाली बनाने की इच्छा करता है ! तभी एक दिन सूजन के मारे हाथ पाँव, गाल, चेहरा फूल गया !
एक बार किसी परिचित से भेंट हो गयी। कई दिनों की जान पहचान थी । उसने उसे गौर से देखा और तपाक से कह दिया :
"दोस्त, क्या बात है ? बड़े तन्दुरूस्त नजर आ रहे हो !”
अब आप ही कहिए, वह अपने दोस्त को क्या जवाब दे ?
४
क्या वह दोस्त के कहने से सूजे हुए शरीर को तन्दुरुस्त मान लेगा ? अपने को पुष्ट मान लेगा ? वास्तव में देखा जाए तो वह निरोगी तो नहीं, रोग से परिपूर्ण मानता है और उसे ऐसी कृत्रिम पुष्टता की कतई चाह नहीं है 1
・
ठीक इसी तरह कर्मोदय से, पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त भौतिक सम्पत्ति के प्रति मुनि का यह रूख होता है ! कर्मजन्य सौंदर्य, रूप, रंग, आरोग्य, सुडौलता, परिपुष्टतादि पौद्गलिक भावों के प्रति मुनि की यह दृष्टि होती है कि 'यह वास्तविक पुष्टता नहीं है, बल्कि कर्मजन्य भयंकर व्याधि है !' जैसे शरीर के प्रति ममत्व रखनेवाले को 'सूजन' रोग लगता है, ठीक उसी तरह जिसे आत्मा पर ममत्व है उसके लिए पूरा शरीर ही रोग प्रतीत होता है । शारीरिक पुष्टता को वास्तविक पुष्टता नहीं मानता
1
प्राचीनकाल में ऐसी परम्परा थी कि जिसका वध करना हो, बलि चढ़ानी हो, बलिदान के पूर्व उसका शृंगार किया जाता था ! नये वस्त्र और पुष्प - मालाएँ पहनायी जाती थी । ढोल, तुरही और जयघोष के बीच उसकी शोभा यात्रा निकाली जाती ! ऐसे समय वद्यस्तम्भ की ओर ले जाये जानेवाले मनुष्य को श्रृंगार और वाद्य–वृन्द क्या आह्लादक लगते ? क्या वह जय जयकार और श्रृंगार से प्रसन्न होता ? नहीं, बिल्कुल नहीं । शृंगार, जय जयकार और तुरही घोष उसके लिए मृत्युघोष से कम नहीं होता । वह आकुल-व्याकुल और अधीर होता है ।
बहुमूल्य वस्त्रालंकार और मान-सन्मानादि पौद्गलिक भावों के प्रति मुनि प्रायः उदासीन होता है । मृत्यु की निर्धारित सजा भुगतने के लिए निरंतर आगे