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________________ १७० ज्ञानसार I अभिमुख हो जाती हैं । उसकी वाणी विभवों की निंदा - प्रशंसा से निवृत्त हो, आत्मभाव की अगम - अगोचर रहस्य वार्ताओं को प्रकट करने का सर्वोत्तम साधन बन जाती हैं। उसका इन्द्रिय व्यापार शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के सुखदुःख से निवृत्त हो आत्माभिव्यक्ति के पुरुषार्थ में लीन हो जाता है 1 ऐसे किसी ज्ञान अथवा श्रद्धा के सहारे हाथ पर हाथ धरे बैठे न रहना चाहिए कि जिस ज्ञान - श्रद्धा द्वारा विशुद्ध आत्मस्वरुप प्रकट करने का पुरुषार्थ न होता हो । आत्मा के ज्ञानादि गुणो में रमणता न होती हो । पौद्गलिक प्रेम की धारा अविरत रूप से प्रवाहित हो, दारूण द्वेष की ज्वाला तन-बदन को झुलसा रही हो और मोह-माया का घना अन्धेरा आत्मा पर आच्छादित होता हो । ज्ञान के तीक्ष्ण शस्त्र से पुद्गल - प्रेम की विष-वल्लरी का छेदन करना चाहिए । ज्ञान के शीतल जल से दारुण द्वेष की ज्वाला को बुझाना / शान्त करना चाहिए । ज्ञान की दिव्य-ज्योति से मोह-माया के अन्धकार को दूर भगाना चाहिए । यही तो ज्ञान - श्रद्धा का परिणाम है, फल है । हृदय की पवित्र वृत्ति और वचन काया के विशुद्ध कार्य-कलाप, दोनों की विशुद्धि दिन दुगुनी रात चौगुनी वृद्धिगत होनी चाहिए । फलस्वरूप आत्मा आन्तरिक सुख का अनुभव करती जाती है। मधुरतम शान्ति और अद्भुत आनन्द में खो जाती है। तात्पर्य यही कि हमें ऐसे ज्ञान और श्रद्धा को आत्मसात् करना चाहिए कि जिससे वृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों आत्माभिमुख बन जाएँ । फलतः दोष क्षीण होते जायेंगे और गुणों का विकास होता जाएगा । यथा शोफस्य पुष्टत्वं यथा वा वध्यमण्डनम् । तथा जानन्भवोन्मादमात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् ॥१३॥६॥ अर्थ : जिस तरह नित्य बढ़ते सूजन अथवा वध करने योग्य पुरुष (बलि) को कर्ण - पुष्पों (करन - फूल) की माला पहना कर सुशोभित करते है, ठीक उसी तरह संसार के उन्माद को जाननेवाला मुनि-श्रमण स्व- आत्मा को लेकर ही संतुष्ट होता है । विवेचन : एक अदना - सा इन्सान | सामान्य देहयष्टि, दुबला पतला,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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