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________________ मौन १६९ ठीक वैसे ही शुद्ध आत्म-स्वभाव का आचरण अथवा दोष की निवृत्ति-स्वरुप कोई फल प्राप्त न हो, वह ज्ञान नहीं और ना ही श्रद्धा है। विवेचन : वास्तव में जो मणि नहीं है, बल्कि निरा कांच का टुकडा है, उसे अपनी कल्पना के बल पर रत्न मानकर, 'वह रत्न है, कहने से, क्या हमारा माना हुआ रत्न, असली रत्न की प्रवृत्ति करेगा? वास्तविक रत्न का काम देगा क्या ? साथ ही, असली मणि-मुक्ता से प्राप्त होनेवाला फल उक्त कल्पित वस्तु से प्राप्त हो जाएगा क्या ? अर्थात् जिसमें मणि-मुक्ता के गुणों का सर्वथा अभाव है, उससे कोई फल मिलनेवाला नहीं है। उसके प्रति 'यह रत्न है, कह कर श्रद्धा रखना अतात्विक है, असत्य है । वास्तविक मणि भयंकर से भयंकर विषधर का विष उतारने का सर्वोत्तम कार्य करती है । तब क्या कांच का टुकड़ा (कृत्रिम मणि) विष उतारने का कार्य करेगा ? असली मणि यदि किसी जौहरी के हाथ बेचा जाए तो लाखों की सम्पत्ति देगा, लेकिन कांच के टुकड़े के लाख रूपये प्राप्त होंगे क्या ? - ठीक उसी तरह, जिससे आत्मस्वभाव में किसी प्रकार की कोई प्रवृत्ति न हो और शुद्ध आत्मा का फल-'दोषनिवृत्ति' का भी प्राप्त न होता हो, ऐसा ज्ञान, ज्ञान नहीं और ना ही ऐसी श्रद्धा श्रद्धा है। ज्ञान और श्रद्धा को नापने का न जाने कैसा अद्भुत यंत्र यहाँ बताया गया है ! क्या शुद्ध आत्मस्वभाव की निकटता साधनेवाला... आत्मा स्वभाव का सही अनुसरण करनेवाला आचरण है ? क्या तुम्हारे भीतर वर्षों से घर कर गए राग-द्वेष और मोह, समय के साथ कम होते जा रहे हैं ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर हकार में है तो तुम्हारा आत्मज्ञान और तुम्हारी आत्मश्रद्धा शत-प्रतिशत यथार्थ है । तुम्हारे आचरण में विशुद्ध आत्मा की ओजस्विता होनी चाहए, कर्मों के कलंक-पंक की गहरी कालिमा नहीं, ना ही कर्मों के विचित्र प्रभाव ! जीवात्मा का आत्मज्ञान एवं आत्मश्रद्धा प्रायः मानसिक, वाचिक और कायिक आचरण को प्रभावित करती है । 'मैं विशुद्ध आत्मा हूँ... सच्चिदानन्दस्वरुप हूँ।' परिणामस्वरुप उसके मनोरथ कल्पनाएँ, स्पृहाएँ कामनाएँ और अनंत अभिलाषाएँ पौद्गलिक भावों से पराङ्मुख बन आत्मभावों के प्रति
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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