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ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं आस्त्रवनिरोधः संवरफलं तपोबलम् तपसो निर्जराफल दृष्टम् ।'
ज्ञानसार
श्रमण के लिए जो चारित्र साध्य है, वह ज्ञानस्वरुप नहीं, बल्कि ज्ञान के फलस्वरूप है। ज्ञान का फल है विरतिरुप क्रिया, आश्रव-निरोधात्मक क्रिया, तपश्चर्या की क्रिया और निर्जरा की क्रिया । यह क्रिया की प्राप्ति के फलस्वरुप चारित्र मुनि को साध्य होता है । ऐसे साध्य को सिद्ध करने के लिए कठोर पुरुषार्थ की आवश्यकता है | इस तरह पुरुषार्थ करते हुए आत्मतत्त्व निरावरण–कर्मरहित प्रकट होता है, तब आत्मा ज्ञाननय से साध्य बनती है ।
" जो भी करना है आत्मा के लिए कर । हे जीव, मन-वचन और . काया का विनियोग आत्मा में ही कर दे । तुम अपनी आत्मा को केन्द्र में रख उसके विशुद्ध आत्मस्वरूप को परिलक्षित कर, वाणी, विचार और व्यवहार को रख,” इसीको चारित्र कहते हैं। साथ ही ज्ञाननय / ज्ञानाद्वैत को मान्य ऐसे आत्मज्ञान को घर में बसा कर विशुद्ध आत्मज्ञान के प्रकटीकरण हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करते रहना चाहिए । यही तो दोनों नयों का उपदेश है ।
पौद्गलिक भाव के नियंत्रण को छिन्न-भिन्न करने के लिए आत्मभाव की रमणता अविरत रूप से वृद्धिगत होती रहे, उसी रमणता के लिए ज्ञान-दर्शन और चारित्र की आराधना मुनि के लिए साध्य है ।
यतः प्रवृत्तिर्न मणौ, लभ्यते वा न तत्फलम् । अतात्विकी मणिज्ञप्ति - मणिश्रद्धा च सा यथा ॥ १३ ॥४॥
तथा यतो न शुद्धात्मस्वभावाऽऽचरणं भवेत् । फलं दोषनिवृत्तिर्वा न तद् ज्ञानं न दर्शनम् ॥१३॥५॥
अर्थ : जिस तरह मणि (रत्न) के सम्बन्ध में कोई प्रवृत्ति न की जाय अथवा उक्त प्रवृत्ति का फल निष्पन्न न हो, वह मणि का ज्ञान और मणि की श्रद्धा अवास्तविक (कृत्रिम) है,