SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मौन १६७ विवेचन : आत्मा के सम्बन्ध में अनुगमन करना मतलब चारित्र ! मुनि का ध्येय... साध्य यही चारित्र है ! इसी चारित्र का स्वरूप शुद्ध ज्ञाननय एवं क्रियानय के माध्यम से यहाँ तोला गया है । शुद्धज्ञान - नय (ज्ञानाद्वैत) का कहना है कि 'चारित्र बोधस्वरूप है । आत्म-स्वरूप का अवबोध ही चारित्र है । उसका विश्लेषण निम्नानुसार हैं ! चारित्र : = आत्मा में अनुगमन करना । पौद्गलिक भावों से निवृत्त होना । आत्म-स्वरुप में रमणता करना । = = = = आत्मा, जो कि अनंतज्ञानरुप है, उसमें आकण्ठ डूब जाना । आत्मा के ज्ञानस्वरूप में रमणता । तात्पर्य यही है कि आत्मज्ञान में स्थिरता यही चारित्र है और चारित्र का मतलब आत्म-ज्ञान में रमणता ! ज्ञान और चारित्र में अभेद है ! ज्ञाननय (ज्ञानाद्वैत) आत्मा के दो गुण मानता है : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ! चारित्र ज्ञानोपयोगरूप और दर्शनोपयोगरूप है ! उसका अभेद है । इस व्यापार के भेद से ज्ञान त्रिरुप भी है ! जब तक विषयप्रतिभास का व्यापार होता हो तब तक ज्ञान है और जब आत्म- परिणाम का व्यापार हो तब सम्यक्त्व है ! जब आश्रव-निरोध होता है तब तत्त्वज्ञान में व्यापार होता है, तब वही ज्ञान और वही चारित्र ! क्रियानय का मंतव्य है कि सिर्फ आत्मस्वरूप का ज्ञान ही चारित्र और साध्य है, ऐसा नहीं है ! जीव को आत्मा का ज्ञान होने के बाद तदनुरूप क्रिया उसके जीवन में घुल-मिल जानी चाहिए !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy