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________________ १६६ आत्मानमात्मना वेत्ति मोहत्यागाद् यदात्मनि । ५ तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥ ज्ञानसार न जाने कैसी रोचक / आकर्षक दिल - लुभावनी बात कही है ! मोह का त्याग करो और आत्मा में ही आत्मा को देखो ! सचमुच यही ज्ञान है, श्रद्धा है और चारित्र है और इसका होना निहायत जरूरी है ! फलतः श्रुतज्ञान द्वारा जहाँ आत्मा ने आत्मा को पहचान लिया वहाँ 'अभेदनय' के अनुसार श्रुतकेवलज्ञानी बन गया ! क्योंकि आत्मा स्वयं में ही सर्वज्ञानमय है । ★ आत्मा ( मोहत्याग कर ) ★ आत्मा को (सर्वज्ञानमय ) ★ आत्मा द्वारा ( श्रुतज्ञान) ★ आत्मा में (सर्वगुण - पर्यायमय जाने) जो हि सुष्णाभिगच्छइ अप्पाणमणं तु केवलं शुद्धं । तं सुअकेवलिमिसिणो भांति लोगप्पदीवयरा ॥ - समयप्राभृते "जिस श्रुतज्ञान के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, उन्हें लोकालोक में प्रखर ज्योति फैलानेवाले श्रुतकेवली कहते हैं !" जब ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि आत्मा अनादि-अनंत, केवलज्ञान— दर्शनमय है, कर्मों से अलिप्त और अमूर्त है,' तब 'मैं साध्य - साधक और सिद्धस्वरूप हूँ! ज्ञान–दर्शन और चारित्रादि गुणों से युक्त हूँ, ऐसी ज्ञान - दृष्टि अपने आप प्रकट हो जाती है । वह रत्नत्रयी की अभेद परिणति है । उसमें ही आतमसुख की अनुपम संवेदना का यथार्थ अनुभव होता है । चारित्रमात्मचरणाद् ज्ञानं वा दर्शनं मुनेः । शुद्धज्ञाननये साध्यं क्रियालाभात् क्रियानये ॥१३॥३॥ अर्थ : आत्मो के सम्बन्ध में चलना चारित्र है और ज्ञाननय की दृष्टि से मुनि के लिए ज्ञान और दर्शन साध्य है । जबकि क्रियानय के अनुसार ज्ञान के फलस्वरूप क्रिया के लाभ से साध्यरुप है ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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