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मौन
उपाय एवं उसका स्वरूप यहाँ बताया गया है ।
आत्मा*
आत्मा में ही
आत्मा द्वारा
विशुद्ध आत्मा को जानें !
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जाननेवाली आत्मा, आत्मा में जाने, आत्मा द्वारा विशुद्ध आत्मा को जाने । ऐसी स्थिति में ज्ञान, श्रद्धा और आचार एक रूप हो जाते हैं ! आत्मा सहज / स्वाभाविक आनन्द से सराबोर हो जाती है ! परपुद्गल से बिल्कुल अलग हो .... निर्लेप ! निरपेक्ष बनकर आत्मा को जानने की क्रिया करनी पड़ती है और आत्मा को ही जानना है ! तब सहज ही मनमें प्रश्न उठता है : 'कैसी आत्मा को जानना है ?' हमें कर्मों के काजल से मुक्त आत्मा को जानना है । ऐसी आत्मा को, जिस पर ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय - मोहनीय अन्तराय, नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुष्य - इन आठ कर्मों का बिलकुल प्रभाव न हो, बल्कि इन सब कर्म - बन्धनों से वह पूर्णतया निर्लिप्त हो । हमें एक स्वतंत्र आत्मा को जानना है । उसका दर्शन करना है । प्रस्तुत तथ्य को जानने के लिए यदि किसी की सहायता की आवश्यकता हो तो आत्मा की ही सहायता लेनी चाहिए ! आत्मगुणों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए !
हाँ एक बात है और वह यह कि जानने की क्रिया करते समय दो बातों की ओर ध्यान देना ज़रुरी है : ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा० इन दो परिज्ञाओं से हमें आत्मा को जानना है, पहचानना है | आम तौर पर ज्ञपरिज्ञा आत्मा का स्वरुप दर्शाती है और प्रत्याख्यान- परिज्ञा उसके अनुरुप पुरुषार्थ कराती है !
आत्मा को जानने के लिए कहीं और भटकने की आवश्यकता नहीं है, आत्मा में ही जानना है ! अनंत गुणयुक्त और पर्याययुक्त आत्मा में ही विशुद्ध आत्मा की खोज करनी है, जानना है। लेकिन जानने की अभिलाषा रखनेवाली आत्मा को मोह का त्याग करना होगा; तभी वह इसे सही स्वरूप में जान सकेगी।
★ देखिए परिशिष्ट