________________
१६४
ज्ञानसार
श्रमणत्व है... और वही सम्यकत्व है ! क्योंकि जगत्-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान ही समकित है। जगत्-तत्त्व का ज्ञान = सम्यक्त्व
सम्यक्त्व = श्रमणत्व जगत्-तत्त्व का ज्ञान = श्रमणत्व
मुणी मोणं समायाए घूणे कम्मसरीरगं । पंतं लूहं च सेवन्ति वीश समत्तदंसिणो ॥
उत्तराध्ययने ऐसी साधुता को अंगीकार कर श्रमण, कार्मण शरीर को समाप्त करता है, अर्थात् आठों कर्मों का विध्वंस करता है, क्षय करता है । जब जगत् तत्त्व के ज्ञानरूप श्रमणत्व का प्रादुर्भाव होता है, तब वह सम्यक्त्वदर्शी नस्-पुंगव रूखेसूखे भोजन का सेवन करता है ! क्योंकि इष्ट, मिष्ट और पुष्ट भोजन के सम्बन्ध में उसके मन में कोई ममत्व नहीं होता, स्पृहा नहीं होती।
जगत्-तत्त्व का ज्ञान, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयदृष्टि से, द्रव्य-गुण* एवं पर्याय की शैली से तथा निमित्त-उपादान की पद्धति से तथा उत्सर्ग-अपवाद के नियमों से होना चाहिए।
आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं जानात्यात्मानमात्मना ।
सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारैकता मुनेः ॥१३॥२॥ - अर्थ : आत्मा के विषय में ही आत्मा सिर्फ कर्मरहित आत्मा को आत्मा से जानती है ! वह ज्ञान, दर्शन, एवं चारित्र रूपी तीन रत्नों में ज्ञान, श्रद्धा और आचार की अभेद परिणति मुनि में होती है ।
विवेचन : आत्मसुख की स्वाभाविक संवेदना हेतु ज्ञान, श्रद्धा एवं आचार की 'अभेद परिणति' होना आवश्यक है। इस 'अभेद परिणति' संबंधित
★ देखिए परिशिष्ट