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________________ मौन १६३ यहाँ मुनि-जीवन का स्वरूप 'एवंभूत' नयदृष्टि से बताया गया है, विश्व में रहा प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ अनंत धर्मात्मक होता है, अर्थात् एक वस्तु में अनेक धर्मों का समावेश होता है ! हर वस्तु का अपना अलग विशिष्ट धर्म होता 1 है ! मतलब एक-एक धर्म, वस्तु का एक-एक स्वरूप है ! वस्तु भले ही एक हो, लेकिन उसका स्वरूप अनंत है, विविध है ! जबकि वस्तु की पूर्णता उसके अनंत स्वरूप के समूहरूप में होती है ! वस्तु के किसी एक स्वरूप को लेकर जब विचार किया जाता है, तब उसे 'नयविचार' कहते हैं ! प्रस्तुत में 'मुनि' जो स्वयं में एक चेतन पदार्थ है, उसके अनंत स्वरूपों में से किसी एक स्वरूप का विचार किया जाता है ! अतः यह विचार 'एवंभूत' नय का विचार है ! ' एवंभूत' नय शब्द और अर्थ दोनों का विशिष्ट स्वरूप बताता है ! उदाहरण के लिये हम 'घड़ा' शब्द को ही लें ! यहाँ 'घड़ा' शब्द और 'घड़ा' पदार्थ-दोनों के सम्बन्ध में 'एवंभूत' नय की विशेष दृष्टि है ! शब्दशास्त्र के नियमानुसार शब्द की जो व्युत्पत्ति होती है, वह व्युत्पत्ति- संदर्शित पदार्थ ही वास्तविक पदार्थ माना गया है ! साथ ही शब्द भी वह तात्त्विक है, जो उसकी नियत क्रिया में पदार्थ को स्थापित करता है ! इस तरह नयदृष्टि से घड़े को तभी घड़ा माना जाता है, जब वह किसी नारी अथवा अन्य के सिर पर हो और उसका उपयोग पानी लाने-ले जाने के लिये किया जाता हो ! एक स्थान से दूसरे स्थान पर पानी लाने-ले जाने की क्रिया के स्वरूप में 'एवंभूत' नय घड़े को देखता है और वह प्रसिद्ध क्रिया में' रहे हुए घड़े का बोध करानेवाले रूप में 'घड़ा' शब्द, इस नय को सहमत है ! 'मुनि' शब्द की व्युत्पत्ति है : 'मन्यते जगत्तत्वं सो मुनिः ।' अर्थात् जो जगत् के तत्त्व का ज्ञाता है, वह मुनि कहलाता है । ऐसे ही मुनि के अनंत स्वरूपों में एक स्वरूप का 'एवंभूत' नयदृष्टि से विचार किया गया है ! जगत्तत्त्व को जानने के स्वभाव - स्वरूप मुनि का उल्लेख किया गया है ! मतलब, जगत्-तत्त्व का परिज्ञान ही मुनि-स्वरुप का माध्यम बना है । जिन स्वरूप में जगत् का अस्तित्व है उसी स्वरूप में जानना यही ★ देखिए परिशिष्ट
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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