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________________ १३. मौन मौन धारण कर ! निःस्पृह बनते ही अपने आप मौन का आगमन हो जाएगा ! मौन धारण करने से अनेकविध स्पृहाएँ शान्त हो जायेंगी ! मौन की वास्तविक परिभाषा यहाँ ग्रन्थकार ने आलेखित की है ! व्यक्ति को ऐसा ही मौन धारण करना चाहिए ! हे श्रमण श्रेष्ठ ! तुम्हारा चारित्र ही एक तरह से मौन है ! मौन-रहित भला चारित्र कैसा ? पुद्गलभाव में मन का मौन धारण कर ! यहाँ तक कि पौद्गलिक विचारों को भी तिलांजलि दे देनी चाहिए ! उत्तमोत्तम मानसिक स्थिति का सृजन करने में प्रस्तृत अष्टक स्पष्ट रुप से हमारा मार्गदर्शन करेगा । मन्यते यो जगत् तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः । सम्यक्त्वमेव तन्मौनं मौनं सम्यक्त्वमेव वा ॥१३॥१॥ अर्थ : जो जगत् के स्वरुप का ज्ञाता है, उसे मुनि कहा गया है ! अतः सम्यक्त्व ही श्रमणत्व है और श्रमणत्व ही सम्यक्त्व है ! मुनि - जीवन की श्रमण - जीवन की विवेचन : मौक्षमार्ग की आराधना का अर्थ ही है आराधना । अतः मोक्षमार्ग के अभिलाषी आराधकों को प्रायः आराधना करनी चाहिए ! साथ ही आराधना करने के पूर्व श्रमण - जीवन की वास्तविकता को यथार्थ स्वरूप में आत्मसात् करना चाहिए, समझना चाहिए ! जिसका दिग्दर्शन / विवेचन सर्वज्ञ - सर्वदर्शी परमात्मा ने किया है ! श्रमणत्व के यथार्थ स्वरूप को जानकर श्रद्धाभाव से उसका आचरण करना चाहिए !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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