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________________ निःस्पृहता १६१ वैसे लालसा, स्पृहा, आशातीत बढ़ती ही जाती है । उसी अनुपात से दुःख भी बढ़ता जाता है ! फिर भी समय रहते वह समझ नहीं पाता कि उसके दुःख का मूल कारण पर–पदार्थ की स्पृहा ही है ! वह तो यही मान बैठा है कि 'मुझे इच्छित पदार्थ नहीं मिलते इसलिए मैं दुःखी हूँ उसकी यह कल्पना उसे मनपसंद पदार्थ की प्राप्ति हेतु, पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करती है ! फलस्वरूप उसका दुःख दूर होना तो दूर रहा, बल्कि अपना जीवन पूरा कर वह अनंत विश्व की जीवसृष्टि में खो जाता है ! पूज्य उपाध्यायजी की 'निःस्पृहत्वं महासुखम्' सूक्ति के साथ भक्तपरिज्ञा पयन्ना' सूत्र का निरवेक्खो तर दुत्तरभवोऽयं, वचन भी जोड़ दें । 'निरपेक्ष आत्मा प्रायः दुष्कर दुस्तर भव-समुद्र से तैर जाती है।' हमेशा निःस्पृहता से प्राप्त महासुख का अनुभव करनेवाली आत्मा दुःखमय भवोदधि को पार कर परम सुख... अनंत सुख की अधिकारी बनती है ! निःस्पृहता की यह अंतिम सिद्धि है ! अथवा यों कहे तो अतिशयोक्ति न होगी की अंतिम सिद्धि का प्रशस्त राजमार्ग निःस्पृहता है ! .. _ 'निरंतर स्पृहा के वशीभूत हो, प्राप्त सुख के बजाय उस स्पृहा के त्याग से प्राप्त किया हुआ सुख चिरस्थायी, अनुपम और निर्विकार है !' प्रस्तुत तथ्य में आस्था रखकर निःस्पृहता के महामार्ग पर जीव को गतिमान होना चाहिए ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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