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ज्ञानसार
हो जाए तो मनुष्य सुख को दुःख और दुःख को सुख मान लेता है ! फलतः अशान्ति, कलह और संताप से दुःखी बन जाता है ! सामान्य तौर पर मनुष्य बाह्य पदार्थों के संयोग-वियोग को सुख-दुःख मान लेता है ! ठीक वैसे ही बाह्य दुनिया के जड़-चेतन पदार्थ को वह सुख-दुःख का दाता मान लेता है ! अतः उसका कभी समाधान नहीं होता।
जबकि सख-दःख तो मन की कोइ धारणा, कल्पना मात्र हैं। बाह्य दुनिया के किसी पदार्थ की प्राप्ति न हुई हो, फिर भी उसकी स्पृहा पैदा हो जाएँ तो दुःखारंभ हो जाता है ! जहाँ 'जहाँ पस्-स्पृहा वहाँ-वहाँ दुःख' जहाँ परस्पृहा का अभाव वहाँ दुःख का नामोनिशान नहीं !' प्रस्तुत सिद्धान्त में न तो अतिव्याप्ति है, न अव्याप्ति है और ना ही असम्भव दोष है ! हर व्यक्ति को अपने जीवन पर दृष्टिपात करना चाहिए ! यदि उसके जीवन में कहीं कोई दुःख है तो निरीक्षण करना चाहिए कि वह कहाँ से उत्पन्न हुआ और किस कारण हुआ ? तब उसे ज्ञात होते विलम्ब न लगेगा कि किसी जड़-चेतन पदार्थ की स्पृहा वहाँ विद्यमान है, जिसके कारण उसके जीवन में दुःख का प्रादुर्भाव हुआ है ! भोगी हो या योगी, पर-पदार्थ की स्पृहा पैदा होते ही वह दुःख का शिकार बन जाता है। जबकि पर-पदार्थ की स्पृहा दूर होते ही अनायास सुख का आगमन होता है ! जब तक राजकुल का भोजन प्रिय, स्वादिष्ट न लगा तब तक कंडरिक मुनि परम सुखी था ! लेकिन राजकुल का भोजन इष्ट लगते ही स्पृहा जग पड़ी ! परिणामतः शीध्र ही वे दुःखी बन गये। उन्होंने साधु-जीवन की मर्यादाओं का उल्लंघन क्रिया, श्रमण-जीवन का त्याग किया और अपनी स्पृहा को पूरी करने के प्रयास में कालकवलित हो गये ! सातवी नरक के महादुःख के भँवर में फँस गये !
जीवन में जाने-अनजाने कही पर-पदार्थ की स्पृहा जाग न पड़े, अतः पर-पदार्थों से जहाँ तक हो सके कम परिचय करना चाहिए ! पर-पदार्थों के माध्यम से प्राप्त सुख की कामना का परित्याग करना चाहिए ! क्योंकि यही वह स्थान है, जहाँ जीव को फिसलते देर नहीं लगती ! 'पर-पदार्थ सुख का द्योतक है, यह कल्पना मानवजीवन में इतनी तो रूढ हो गयी है कि जीव निरंतर उसकी झंखना करता रहता है और जैसे जैसे पर पदार्थों की प्राप्ति होती जाती है, वैसे