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________________ निःस्पृहता १५९ में वह कोई कसर नहीं रखता। साथ ही जब पराधीन सुख की स्पृहा जग पड़ती है तब पाप-पुण्य के भेद को भी वह भूल जाते हैं । इसकी प्राप्ति हेतु वह घोर पापाचरण करते नहीं अघाते ! सीता का संभोगसुख पाने की तीव्र स्पृहा महाबली रावण के मन में पैदा होते ही सीता हरण की दुर्घटना घटित हुई और उसी स्पृहा की भयंकर आग में लंका का पतन हुआ ! असंख्य लोगों को प्राणोत्सर्ग करना पड़ा ! रावण-राज्य की महत्ता, सुन्दरता और समृद्धि मटियामेट हो गयी और महापराक्रमी रावण को नरक में जाना पड़ा ! - मालवपति मुंज को हाथी के पैरों तले कुलचवाया गया, रौंदा गया, किस लिए ? सिर्फ एक नारी मृणालिनी के लिए ! इस संसार में मनुष्य जो भी अनुचित कर रहा है, दिन-रात पापाचरण में डूबा हुआ है, उसके मूल में पर पदार्थ की स्पृहा ही काम कर रही है ! जब जीवात्मा पराधीन - सुख की स्पृहा से ऊपर उठेगा तब ही उसके दुःख-दर्द और अशान्ति का निर्मूलन होगा । ठीक वैसे ही प्राप्त पौद्गलिक सुख भी पराधीन ही है, स्वाधीन नहीं । अतः उसके प्रति भी मन में इस कदर ममत्व नहीं होना चाहिए कि जिस के काफूर होते ही मनुष्य विलाप कर उठे, आक्रंदन करने लगे । 1 इसीलिए नि:स्पृह महात्मा महान सुखी माने गये हैं। क्योंकि पराधीन सुखों की स्पृहा से ऊपर उठ चूके होते है। जैसे कीचड़ बीच कमल ! यदि कोई उन्हें भोगोपभोग का आग्रह करे तब भी वे स्वीकार नहीं करते । ठीक उसी उनके पास रहे अति अल्प पराधीन पदार्थों के प्रति भी वे ममत्व नहीं रखते । भले ही वे (पराधीनपदार्थ) चले जाएँ, शरीर का भी विसर्जन हो जाये, योगी पुरुषों को उसकी तनिक भी परवाह नहीं होती, अतः वे सुखी हैं ! परस्पृहा महादुःखं निःस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ १२॥८ ॥ अर्थ : परायी आशा - लालसा रखना महादुःख है, जबकि निःस्पृहत्व महान् सुख है ! संक्षेप में दुःख और सुख का यही लक्षण बताया है । विवेचन : यदि सुख और दुःख की वास्तविक परिभाषा करने में भूल
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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