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________________ १५८ ज्ञानसार विवेचन : निःस्पृह महात्मा इस संसार में सर्वाधिक सुखी है ! फिर भले ही वह भूमि पर शयन करता हो, भिक्षावृत्ति का अवलम्बन कर भोजन पाता हो, जीर्णशीर्ण जर्जरित वस्त्र धारण करता हो और अरण्य में निवास करता हो ! वह उन लोगों से अधिक भाग्यशाली और महान् सुखी है, जो सुवर्णमंडित पलंग पर बिछे मखमल के गद्दों पर शयन करते हैं, प्रतिदिन स्वादिष्ट षड्स का भोजन करते हैं, नित्य नये वस्त्र परिधान करते हैं और आधुनिक साधन-सुविधाओं से सज्ज गगनचुम्बी महलों में निवास करते हैं। निःस्पृह योगी प्राय : ऐसा जीवन पसंद करते हैं, जिसमें उन्हें कम से कम पर-पदार्थों की आवश्यकता रहती हो !' पर-पदार्थों की स्पृहा जितनी कम उतना ही सुख अधिक ! सोने के लिए पत्थर की शिला, खाने के लिए रुखासूखा भोजन, शरीर ढंकने के लिए कपड़े का एकाध टुकड़ा और रहने के लिए खुले आकाश के तले बिछावन ! यही सिद्ध योगी की धन-संपदा है । यदि उनमें स्पृहा है तो सिर्फ इतनी और दुःख क्लेश का प्रसंग कभी आ भी जाए तो इतनी स्पृहा की वजह से ही ! इससे अधिक कुछ भी नहीं ! बिचारे चक्रवर्ती का तो कहना ही क्या ? मूढ और पागल दुनिया भले ही उसे विश्व का सर्वाधिक सुखी करार दे दे, लेकिन स्पृहा की धधकती ज्वालाओं से दग्ध चक्रवर्ती अन्तरात्मा के सुख से प्रायः कोसों दूर होता है ! उसके नसीब में सुख है कहाँ ? अगर किसी सुख ऐश्वर्य की गरज है तो उसे किसी न किसी का गरजमंद होना ही पड़ता है। जैसे भोजन के लिए पाकशास्त्री का, वस्त्राभूषण के लिये नौकर-चाकर का, मनोरंजन के लिए नृत्यांगनाओं का अथवा कलाकारों का और भोगपभोग के लिए रानी-महारानियों का मुँह ताकना पड़ता है। उनकी खुशीपर निर्भर रहना पड़ता है । नहीं तो पुण्यकर्म के आधीन तो सही! परनिरपेक्ष सुख का अनुभव ही वास्तविक सुखानुभव है । जबकि परसापेक्ष सुख का अनुभव भ्रामक सुखानुभव है ! क्योंकि पर-सापेक्ष सुख जब चाहों तब मिलता नहीं और मिल जाए तो टिकता नहीं ! हमारे मन में सुख-त्याग की इच्छा लाख न हो, फिर भी समय आने पर जब चला जाता है तब जीव को अपार दुःख और वेदनाएँ होती हैं और उसकी पुन:प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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