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ज्ञानसार
विवेचन : जीवन में व्याप्त अनात्मरति / पुद्गलरति को जिस श्रमण ने तिलांजलि दे दी है, वह भला पौद्गलिक भावों पर आधारित गौरव, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की क्या लालसा करेगा ? वह खुद होकर क्या उसका भोंड़ा प्रदर्शन करेगा ? नगरजनों द्वारा किये गये भावभीने अभिनन्दन... राजा-महाराजादि सत्ताधीश और सज्जनों द्वारा दी गयी व्यापक मान्यता.... उच्चकुल.... महान् जाति और विशाल परिवार द्वारा प्रकट प्रसिद्धि... आदि सब महामना मुनि की दृष्टि में कोई मोल / महत्त्व नहीं रखते ! ब्रह्मोन्मत्त महात्मा की दृष्टि- नजर इन सबके प्रति निर्मम और नि:स्पृह होती है ।
नागरिकों के द्वारा की गयी प्रशंसा - स्तवना और अर्चन - पूजन के माध्यम से मुनि अपना गौरव नहीं मानता। उसके मन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । राजा-महाराजा और सर्वसत्ताधीश व्यक्तियों द्वारा दुनिया में गायी जानेवाली यशकथा के बल कर निःस्पृह योगी अपनी उच्चता, सर्वोपरिता की कल्पना नहीं करता । देश-परदेश में आबाल-वृद्ध के मुखपर रहे अपने नाम से उसके हृदय को खुशी नहीं होती । उसके मन में यह सब 'परभाव - पुद्गलभाव' होता है ! जब पुद्गल पर से उसका जी पहले ही उचट गया है, तब भला वह आनन्द कैसे मानेगा ?
अरे, इतना ही नहीं बल्कि निखिल विश्व में फैली उसकी कीर्ति, यश, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा का वह जाने-अनजाने स्वसुख, स्वसंरक्षण के लिए भूलकर भी कभी उपयोग नहीं करेगा ! क्योंकि वह शरीर और शारीरिक सुख से सर्वथा नि:स्पृह होता है ! जब कंचनपुर - नरेश क्रोधित हो, नंगी तलवार लिये, उत्तेजित बन झाँझरिया मुनि की हत्या करने झपट पड़ा, जानते हो, तब मुनिवर ने क्या किया ? उन्होंने क्या यह बताया कि 'राजन् ! तुम किसकी हत्या करने आये हो ? क्या तुम मुझे जानते हो ? प्रतिष्ठानपुर के मदनब्रह्मकुमार को तुम नहीं जानते ? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि कुमार ने राजपद का परित्याग कर श्रमण - जीवन स्वीकार कर लिया है ? शायद आप नहीं जानते कि मैं आपका साला हूँ ?
यदि वह अपना राजकुल, अपनी त्याग-तपस्या, राज - परिवार के साथ रहे सम्बन्ध आदि का प्रदर्शन करते, साफ-साफ शब्दों में बता देते तब सम्भव था कि राजा शस्त्र त्याग कर और क्रोध को थूक कर महामुनि के चरणों में झुक