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निःस्पृहता
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कर सकती, हिला नहीं सकती, हिमाद्रि की उत्तुंग चोटियों को अपनी गरिमा और अस्मिता से चलित नहीं कर सकती, ठीक उसी तरह योगीश्वर / महापुरुषों की आत्मा मेरूपर्वत की तरह अटल-अचल होती है ! स्पृहा का तूफान उसे विचलित नहीं कर सकता, ना ही अस्थिर कर सकता है ! अरे, स्पृहा उसके अन्तःस्थल में प्रवेश करने में ही असमर्थ है ! लेकिन यदि स्पृहा प्रवेश करने में समर्थ बन जाए तो सम्भव है कि उसमें रही लोह-शक्ति सदृश आत्मपरिणति नष्ट होते विलम्ब नहीं लगता ! जहाँ वह शक्ति नष्ट हो जाती है, वहाँ वायु के वेगवान प्रहार उसे तोड़-फोड़कर भूमिशायी बना देते हैं।
प्रायः देखा गया है कि स्पृहावन्त व्यक्ति हलका बन जाता है और वह संसार-समुद्र में डूब जाता है। जबकि वास्तविकता है कि हलका (वजन में कम) व्यक्ति समुद्र तैर कर पार कर लेता है ! साथ ही हलकी वस्तु को हवा का झोंका उड़ा ले जाता है, जब स्पृहावन्त को वह अपने स्थान से हिला तक नहीं सकता ! क्योंकी स्पृहावन्त व्यक्ति वजन में हलका नहीं बनता, बल्कि स्व-व्यक्तित्व से हलका बनता है ! तब भला स्पृहावन्त को वायु क्यों उडा ले जाएगा? वायु भी सोचता है !"
"यदि इस भिखारी को ले जाऊँगा तो बार-बार यह भीख माँगेगा और विविध पदार्थों की याचना करेगा !' अत: वह भी उसे ले जाने में उत्सुक नहीं रहता !
यह कभी न भूलो कि स्पृहा करने से तुम दुनिया की नजर में हलके बनते हो । तुम्हारी गणना तुच्छ और ओछे लोगों में होती है ! साथ ही तुम्हें भवसागर की उत्ताल तरंगो का भोग बनते पल की देर नहीं लगेगी !
गौरवं पौरवन्द्यत्वात् प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया ! ख्याति जातिगुणात् स्वस्यप्रादुष्कुर्यान्न निस्पृहः ॥१२॥६॥
अर्थ : स्पृहारहित मुनि, नगरजनों द्वारा वंदन करने योग्य होने के कारण अपने बड़प्पन को, प्रतिष्ठा से प्राप्त सर्वोत्तमता को, अपने उत्तम जातिगुण से प्राप्त प्रसिद्धि को प्रकट नहीं करता है।