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________________ निःस्पृहता १५५ कर सकती, हिला नहीं सकती, हिमाद्रि की उत्तुंग चोटियों को अपनी गरिमा और अस्मिता से चलित नहीं कर सकती, ठीक उसी तरह योगीश्वर / महापुरुषों की आत्मा मेरूपर्वत की तरह अटल-अचल होती है ! स्पृहा का तूफान उसे विचलित नहीं कर सकता, ना ही अस्थिर कर सकता है ! अरे, स्पृहा उसके अन्तःस्थल में प्रवेश करने में ही असमर्थ है ! लेकिन यदि स्पृहा प्रवेश करने में समर्थ बन जाए तो सम्भव है कि उसमें रही लोह-शक्ति सदृश आत्मपरिणति नष्ट होते विलम्ब नहीं लगता ! जहाँ वह शक्ति नष्ट हो जाती है, वहाँ वायु के वेगवान प्रहार उसे तोड़-फोड़कर भूमिशायी बना देते हैं। प्रायः देखा गया है कि स्पृहावन्त व्यक्ति हलका बन जाता है और वह संसार-समुद्र में डूब जाता है। जबकि वास्तविकता है कि हलका (वजन में कम) व्यक्ति समुद्र तैर कर पार कर लेता है ! साथ ही हलकी वस्तु को हवा का झोंका उड़ा ले जाता है, जब स्पृहावन्त को वह अपने स्थान से हिला तक नहीं सकता ! क्योंकी स्पृहावन्त व्यक्ति वजन में हलका नहीं बनता, बल्कि स्व-व्यक्तित्व से हलका बनता है ! तब भला स्पृहावन्त को वायु क्यों उडा ले जाएगा? वायु भी सोचता है !" "यदि इस भिखारी को ले जाऊँगा तो बार-बार यह भीख माँगेगा और विविध पदार्थों की याचना करेगा !' अत: वह भी उसे ले जाने में उत्सुक नहीं रहता ! यह कभी न भूलो कि स्पृहा करने से तुम दुनिया की नजर में हलके बनते हो । तुम्हारी गणना तुच्छ और ओछे लोगों में होती है ! साथ ही तुम्हें भवसागर की उत्ताल तरंगो का भोग बनते पल की देर नहीं लगेगी ! गौरवं पौरवन्द्यत्वात् प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया ! ख्याति जातिगुणात् स्वस्यप्रादुष्कुर्यान्न निस्पृहः ॥१२॥६॥ अर्थ : स्पृहारहित मुनि, नगरजनों द्वारा वंदन करने योग्य होने के कारण अपने बड़प्पन को, प्रतिष्ठा से प्राप्त सर्वोत्तमता को, अपने उत्तम जातिगुण से प्राप्त प्रसिद्धि को प्रकट नहीं करता है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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