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________________ १५४ ज्ञानसार नहीं है ! साधु को भूलकर भी कभी स्पृहावन्त नहीं बनना चाहिए ! महा सामर्थ्यशाली स्थूलिभद्रजी की स्पर्धा करने के लिए कोशा गणिका के आवास में जानेवाले सिंहगुफावासी मुनिवर की कलंक-कथा क्या तुम्हें विदित नहीं है ? 'मगध-नृत्यांगना कोशा की चित्रशाला मैं भी चातुर्मास करूँगा,' ऐसे मिथ्या आत्मविश्वास और संकल्प के साथ वे उसके द्वार पर गये और कोशा की कमनीय काया के प्रथम दर्शन से और उसके मधुर स्वर से प्रस्फुरित शब्दों का श्रवण करते ही सिंह-गुफावासी मुनिवर का सिंहत्व क्षणार्ध में हिरन हो गया ! वे गलितगात्र हो गये ! अनात्म-रति पुरजोर से जग पड़ी ! स्पृहा ने उसको सक्रिय साथ दिया ! फलतः सिंहगुफवासी मुनिवर नृत्यांगना कोशा के सुकोमल काया की स्पहा के विष से व्याप्त हो गए ! प्रगाढ अरण्य, घने जंगल और असंख्य वनचर पशु-पक्षियों पर अधिपत्य रखनेवाले वनराजों के बीच चार-चार माह तक एकाग्रचित्त ध्यानस्थ रहनेवाले महान सात्त्विक और मेरू सदृश निष्प्रकम्प बनकर, चातुर्मास करनेवाले महा पुरुषार्थी, महातपस्वी मुनिवर क्रोशा के सामने तिनके से भी हलके दुर्बल बन गए ! आक की रूई से भी तुच्छ बन गए ! कोशा गणिका की बाँकी भंगिमा, नेत्र-कटाक्ष की झपट से वे नेपाल जा पहँचे! कोशा के कटाक्ष का वायु उन्हें नेपाल उडा ले गया ! क्योंकि वैषयिक स्पृहा ने उनमें रही संयमदृढता, संकल्पशक्ति की दृढता को क्षणार्ध में छिन्न-भिन्न कर मुनिवर को एकाध तिनका और आक की रूई की भाँति हलका जो कर दिया था ! आषाढाभूति के पतन में भी स्पृहा की करूण करामत काम कर गयी ! 'मोदक' की स्पृहा ! जिह्वेन्द्रिय के विषय की स्पृहा... यही स्पृहा उन्हें बार-बार अभिनेता के घर खींच गयी... अभिनेत्रियों के गाढ़ परिचय में आने की हिकमत लड़ा गयी... । स्पृहा ने अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार किया... मोदक की स्पृहा का विस्तार हुआ... मदनाक्षी मानिनियों की स्पृहा रंग जमा गयी... स्पृहा की तूफानी हवा जोर शोर से आत्म-प्रदेश पर सर्वत्र छा गयी । चारों दिशाओं में तहलका मच गया । स्पृहा से हलका बना आषाढाभूति का पामर जीव उस चक्रवात / आँधी में उड़ा और सौन्दर्यमयी नारियों । अभिनेत्रियों के प्रांगण में जा गिरा ! एकाध तिनके की तरह तुच्छ बन वह स्पृहा की आंधी का शिकार बन गया ! जिस तरह वेगवान तूफान और तेज आंधी मेरूपर्वत को प्रकम्पित नहीं
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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