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निःस्पृहता
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जाती हैं ! क्योंकि इन सब आकांक्षाओं के मूल में 'आत्मरति' जो होती है !
ऐसी स्पृहाएँ, कामनाएँ, अभिलाषाएँ कि जिनके मूल में अनात्मरति है, वह दिखावे में भले ही तप, त्याग और संयममय हो, ज्ञान और ध्यान की हो, भक्ति और सेवाभाव की हो, लेकिन सभी हेय हैं, सर्वथा त्याज्य हैं ! " मैं तपाराधना करूँगा तो मान-सन्मान मिलेगा ! मैं ज्ञानी - ध्यानी बनूँगा तो सर्वत्र मेरा पूजासत्कार होगा ! मैं भक्ति-सेवाव्रती हूँगा तो लोक में वाह-वाह होगी !" इन स्पृहाओं के मूल में 'अनात्मरति' कार्यशील हैं ! अतः ऐसी स्पृहाओं को पास भी आने नहीं देना चाहिए ! बल्कि उन्हें हमेशा के लिये निकाल बाहर करना चाहिए ! फलस्वरूप, किसी भी प्रकार की स्पृहा पैदा होते ही साधकवर्ग को विचार करना चाहिए कि उक्त स्पृहाओं से कहीं अनात्मरति का पोषण तो नहीं हो रहा है ? अन्तर्मुख होकर इसके बारे में सभी दृष्टि से विचार करना परमावश्यक है ! जब तब इसके सम्बन्ध में अन्तर की गहराई से विचार नहीं होगा, तब तक अनात्मरति से युक्त स्पृहाएँ, हमारे आत्म- गृह को भग्नावशेष में परिवर्तित करते विलम्ब नहीं करेंगी ! भूलो भूमत, भूतकाल में भी इसी के कारण हमारा सत्यानाश हुआ है ।
ऐसे अवसर पर तुम्हारी विद्वत्ता, आराधकता और साधकता का दारोमदार इस बात पर अवलम्बित है कि तुम अनात्म - रति समेत स्पृहा को अपने आत्म-गृह से निकाल बाहर करते हो अथवा नहीं ! यदि उन्हें निकाल बाहर करते हो तब तो तुम सही अर्थ में साधक, आराधक और विद्वान् हो, वर्ना कतई नहीं !
स्पृहावन्तो विलोक्यंते, लघवस्तृणतूलवत् !
महाश्चर्यं तथाप्येते, मज्जन्ति भववारिधौ ॥ १२॥५॥
अर्थ : स्पृहावाले तिनके और आक के कपास के रोएँ की तरह हलके दिखते हैं, फिर भी वे संसार - समुद्र में डूब जाते हैं ! यह आश्चर्य की बात है !
विवेचन : याचना और भीख, मनुष्य का नैतिक पतन करती है ! किसी एक विषय की स्पृहा जगते ही उसकी प्राप्ति के लिए याचना करना, भीख माँगना और चापलूसी करना साधनासम्पन्न मुनिराज के लिए किसी भी रूप में उचित