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________________ निःस्पृहता १५१ है; उसकी सुरक्षा कि चिंता पैदा होती है... आत्मा के ज्ञानादि गुणों को संरक्षित रखने की विस्मृति हो जाती है ! तब नोबत यहाँ तक आ जाती है कि व्यवहार के लिए आवश्यक ऐसे न्याय-नीति, सदाचार, उदारतादि गुण भी लुप्त हो जाते हैं ! साथ ही, एक स्पृहा पूरी होते ही दूसरी अनेक स्पृहाओं का पुनर्जन्म होता है और उन्हें पूरी करने के लिए प्रयत्न करते समय प्राप्त सुख-शान्ति का अनुभव नहीं पा सकते ! इस तरह नित्य कई स्पृहा का जन्म होता रहे और उसे पूर्ण करने के भगीरथ प्रयास निरंतर चलते रहते हैं ! फलतः जीवन में शान्ति, प्रसन्नता का सवाल ही नहीं उठता । ऐसे समय यदि हमारी ज्ञानदृष्टि खुल जाय तो स्पृहा की विष-वल्लरी सूखते देर नहीं लगेगी ! इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान रूपी हँसिये से स्पृहा रूपी विष–वल्लरिओं को काट दो । निष्कासनीया विदुषा स्पृहा चित्तगृहाद् बहिः । अनात्मरतिचाण्डाली संगमङ्गीकरोति या ॥१२॥४॥ अर्थ : विद्वान के लिए अपने मन-घर से तृष्णा को बाहर निकाल देना ही योग्य है, जो तृष्णा आत्मा से भिन्न पुद्गल में रति-रूप चांडालनी का संग स्वीकार करती है। विवेचन : स्पृहा और अनात्म-रति गाढ़ सम्बन्ध है ! दोनों एक-दूसरे से घुल-मिलकर रहती हैं ! स्पृहा अनात्म-रति के बिना रह नहीं सकती और अनात्म–रति स्पृहा के सिवाय नहीं रहती ! यहाँ पूज्य उपाध्यायजी महाराज तृष्णा को घर से बाहर करने की सलाह देते हुए कहते हैं कि स्पृहा अनात्म-रति की संगत करती रहती है । अर्थात् उसे घर-बाहर कर देना चाहिए ! क्योंकि वह अनात्म-रति का संग करती रहती है ! स्पृहा कहती है : 'मेरा ऐसा कौन सा अपराध है कि मुझे घर बाहर करने के लिए तत्पर हैं ? उपाध्यायजी : तुम अनात्म-रति की संगत जो करती हो । स्पृहा : "इससे भला, आपका क्या नुकसान होता है ?" उपाध्यायजी : 'बहुत बड़ा नुकसान, जिसकी पूर्ति करना प्रायः असम्भव
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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