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ज्ञानसार
हो गया है ! ऊपर से नीचे तक आत्मा जहरीली बन गयी है ! उसने विकराल सर्प का रुप धारण कर लिया है ! मानवदेहधारी जहरीले सर्पो का विष निखिल भूमण्डल को, विश्व को मूछित, निःसत्व और पामर बना रहा है । धन-धान्य की स्पृहा, गन्ध-सुगन्ध की स्पृहा, रंग-रूप की स्पृहा, कमनीय षोडसी रमणियों की स्पृहा, मान-सन्मान और आदर–प्रतिष्ठा की स्पृहा ! न जाने किस-किस की स्पृहा के विष के फुहारे निरंतर उड़ते रहते हैं ! तब भला, स्वस्थता, सात्विकता
और शौर्य कहाँ से प्रकट होगा ? फिर भी मानव पागलपन दोहराता हुआ दिनरात स्पृहा करता ही रहता है ! दुःख, कष्ट, कलह, खेद, अशान्ति आदि असंख्य बुराइयों के बावजूद भी वह स्पृहा करता नहीं थकता ! मान लो, उसने समझ लिया है कि 'स्पृहा किये बिना जी ही नहीं सकते; जिंदगी बसर करने के लिए स्पृहा का सहारा लिये बिना कोई चारा नहीं !' सम्भव है कि अमुक अंश में यह बात
सच हो !
___ लेकिन क्या स्पृहा की कोई मर्यादा निर्धारित नहीं हो सकती ? तीव्र स्पृहा के बन्धन से क्या जीव मुक्त नहीं हो सकता ? अवश्य मुक्त हो सकता है, यदि ज्ञान का मार्ग अपनाये तो ! उसके बल पर वह विषय-वासना की लालसा को नियंत्रित कर सकता है ! ज्ञान-मार्ग का सहयोग लेना मतलब जड़ और चेतन के भेद का यथार्थ ज्ञान होना ! स्पृहाजन्य अशान्ति की अकुलाहट होना और स्पृहा की पूर्ति से प्राप्त सुख के प्रति मन में पूर्णरूपेण उदासीनता होना !
__"मैं आत्मा हूँ... चैतन्यस्वरूप हूँ... सुख से परिपूर्ण हूँ ! जड़ पौद्गलिक पदार्थों के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है ! फिर भला, मुझे उसकी स्पृहा क्यों करनी चाहिये ?"
. 'जड़-पदार्थों की स्पृहा करने से चित्त अशान्त होता है ! स्वभाव में से परभाव में गमन होता है और स्पृहा करने के उपरान्त भी इच्छित पदार्थों की प्राप्ति नहीं होती, तब हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापों के माध्यम से उसे पूरा करने का अध्यवसाय पैदा होता है ! अशान्ति... असुख में तीव्रता आ जाती है ! अतः ऐसे जड़ पदार्थों की स्पृहा से दूर ही भले !
__ यदि स्पृहा पूर्ण हो जाए तो प्राप्त पदार्थों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती