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निःस्पृहता
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करना चाहिए ! नि:स्पृह महापुरुषों के जीवन-चरित्रों का पुनः पुनः परिशीलन करना चाहिए !
आवश्यक पदार्थों (गौचरी, पानी, पात्र, उपधि, वस्त्रादि) की भी कभी इतनी स्पृहा न करें कि जिसके कारण किसी के आगे दीन बनना पड़े, हाथ जोड़ना पड़े और गिड़गिड़ाना पड़े ! समय पर कोई पदार्थ न भी मिले तो उसके बिना काम चलाने की वृत्ति होनी चाहिए । तपोबल और सहनशक्ति प्राप्त करनी चाहिये !
छिन्दन्ति ज्ञानदात्रेण स्पृहाविषलतां बुधाः !
मुखशोषं च मूर्च्छा च दैन्यं यच्छति यत्फलम् ॥१२॥३॥
अर्थ : अध्यात्म- ज्ञानी पण्डित पुरुष स्पृहा रूपी विष - लता को ज्ञानरूपी हँसिये से काटते हैं, जो स्पृहा विष-लता के फलरुप, मुख का सूखना, मूर्च्छा पाना और दीनता प्रदान करते हैं ।
विवेचन : यहाँ-स्पृहा को विष-वल्लरी की उपमा दी गयी है ! स्पृहा यानि विष-वल्लरी ! यह विषवल्लरी अनादिकाल से - आत्मभूमि पर निर्बाध रुप से फलती-फूलती और विकसित होती रही है ! आत्मभूमि के हर प्रदेश में वह विभिन्न रूप-रंग से छायी हुई है । उस पर भिन्न-भिन्न स्वाद और रंग-बिरंगे फल-फूल लगते हैं ! लेकिन उन फलों की खासियत यह है कि उनका प्रभाव हर कहीं, किसी भी मौसम में एक सा होता है !
हमें यहाँ पौद्गलिक-स्पृहा अभिप्रेत है ! जब अनुकूल पदार्थों की स्पृहा जग पड़े तब समझ लेना चाहिए कि विष-वल्लरी पूर-बहार में प्रस्फुटित हो उठी है ! इसके तीव्र होते ही मनुष्य मूच्छित हो जाता है, उसका चेहरा निस्तेज पड़ता है, मुख सूख जाता है और एक प्रकार का पीलापन तन-बदन पर छा जाता है ! उसकी वाणी में दीनता होती है और जीवन का आंतरिक प्रसन्न संवेदन लुप्त होता दृष्टिगोचर होता है !
स्पृहा ! अरे भाई, स्पृहा की भी कोई मर्यादा है, सीमा है ? नहीं, उसकी कोई मर्यादा, सीमा नहीं है ! स्पृहा का विष आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में व्याप्त