________________
१४२
ज्ञानसार
"क्या ऐसी छटपटाहट परमात्मा के दर्शन की है ? जिस पल ऐसी छटपटहट, तड़प का अनुभव होगा, उसी पल परमात्मा के दर्शन हो जायेंगे।"
शुद्धिकरण हेतु ऐसी तीव्र लालसा पैदा होते ही, खुद जिस भूमिका पर हैं, उसीके अनुरुप वह ज्ञान अथवा क्रिया पर भार दें और शुद्ध होने के पुरुषार्थ में लग जायें ।
दोनों में से किसीको भी भूमिका के अनुसार प्राधान्य देना चाहिये । ज्ञान को प्राधान्य दो अथवा क्रिया को, दोनों ही बराबर हैं। छठे गुणस्थानक तक (प्रमत्तयति का गुणस्थानक) क्रिया को ही प्राधान्य देना चाहिये । लेकिन उसमें भी ज्ञान की सापेक्षता होना परमावश्यक है । ज्ञान की सापेक्षता का मतलब है, जो भी क्रिया की जाए, उसके पीछे ज्ञान-दृष्टि होनी चाहिये । ज्ञान की उपेक्षा अथवा अवज्ञा नहीं होनी चाहिये । जबकि व्यवहारदशा में क्रिया का ही प्राधान्य होता है, लेकिन यदि जीब एकान्त क्रिया-जड़ बन जाए, तो आत्मशुद्धि असम्भव है। अत: उसमें भी ज्ञान दृष्टि की आवश्यकता है। ठीक इसी प्रकार ध्यानावस्था में ज्ञान का प्राधान्य रहे, लेकिन भूलकर भी यदि जीव एकान्त ज्ञानजड़ बन जाए, तो आत्मशुद्धि नहीं होती । अतः वहाँ आवश्यक क्रियाओं के प्रति सजगता और समादर होना चाहिये।
व्यवहार से तीर्थ (प्रवचन) की रक्षा होती है, जबकि निश्चय से सत्यरक्षा । जिनमत का रथ, निश्चय और व्यवहार के दो पहियों पर अवस्थित है । अतः जिनमत द्वारा आत्मविशुद्धि का प्रयोग करनेवाले साधक को हमेशा व्यवहार और निश्चय के प्रति सापेक्ष दृष्टि रखनी चाहिये । सापेक्ष दृष्टि एक प्रकार से सम्यग् दृष्टि ही है जबकि निरपेक्षदृष्टि मिथ्यादृष्टि है ।
सापेक्षदृष्टि उद्घाटित होते ही जीवात्मा में ज्ञान-क्रिया का अद्भुत संगम होता है । फलस्वरूप आत्मा निरन्तर विशुद्ध बनती जाती है और उसकी गुणसमृद्धि प्रकट होती है। सापेक्ष दृष्टि के मेघ से बरसता आनन्द-अमृत आत्मा को अजरामर-अक्षय बनाने के लिये पूर्ण रूप से समर्थ होता है । जबकि निरपेक्ष दृष्टि से रिसता रहता है क्लेश, अशान्ति और असंतोष का जहर !