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निर्लेपता
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सज्ञानं यदनुष्ठानं, न लिप्तं दोषपंकतः । शुद्धबुद्धस्वभावाय, तस्मै भगवते नमः ॥११॥८॥
अर्थ : जिनका ज्ञानसहित क्रियारूप अनुष्ठान दोषरूपी मैल से लिप्त नहीं है और जो शुद्ध-बुद्ध ज्ञान स्वरूप स्वभाव के धारक हैं, ऐसे भगवान को मेरा नमस्कार हो ।
विवेचन : जो भी क्रिया हो, ज्ञानसहित होनी चाहिये । ठीक उसी तरह ज्ञानयुक्त क्रियानुष्ठान दोष के कीचड़ से सना हुआ न हो ।
ज्ञानयुक्त (सज्ञान) क्रियानुष्ठान क्या होता है और किसे कहा जाता है ? मतलब, जो भी क्रिया हम करते हों, उसका स्वरूप, विधि और फल की जानकारी हमें होनी चाहिये । सिर्फ आत्मशुद्धि के एकमेव पवित्र फल की आकांक्षा से हमें प्रत्येक क्रियानुष्ठान करना चाहिये । यह आदर्श सदा-सर्वदा हमारे आचार-विचार से प्रकट होना चाहिये कि 'मुझे अपनी आत्मा की शुद्ध-बुद्ध अवस्था को प्राप्त करना है।' क्रिया में प्रवृत्त होते ही उसकी विधि जान लेनी चाहिये और विधिपूर्वक क्रियानुष्ठान करना चाहिये । क्रियानुष्ठान के विधि-निषेध के साथसाथ जिनमतप्रणीत मोक्षमार्ग का यथार्थ ज्ञान मुमुक्षु आत्मा को होना निहायत जरूरी
है।
क्रियानुष्ठान करते समय इस बात से सतर्क रहना चाहिये कि वह अतिचारों से दूषित न हो जाये। मोह, अज्ञान, रस, ऋद्धि और शाता गारव, कषाय, उपसर्ग-भीरुता, विषयों का आकर्षणादि से अनुष्ठान दूषित नहीं होना चाहिये । इसकी प्रतिपल सावधानी बरतनी चाहिये । इस तरह दोष-रहित सम्यग् ज्ञानयुक्त, क्रियानुष्ठान के कर्ता और शुद्ध-बुद्ध स्वभाव के धनी भगवान को मेरा नमस्कार हो । कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि दोष-रहित क्रियानुष्ठान करने से आत्मा का शुद्ध-बुद्ध स्वरूप अपने आप ही प्रकट होता है । जबकि दोषयुक्त और ज्ञानविहीन क्रियायें करते रहने से आत्मा का शुद्ध-बुद्ध सहज स्वरूप प्रकट नहीं होता। लेकिन उससे विपरीत मिथ्याभिमान का ही पोषण होता है। फलतः भवचक्र के फेरों में दिन-दुगुनी रात चौगुन वृद्धि हो जाती है। कर्म-निर्लेप होने के लिये ज्ञान-क्रिया का विवेकपूर्ण तादात्म्य साधना जरूरी है।